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देशद्रोह की ढाल

बीते सप्ताह सुप्रीम कोर्ट के दो फैसलों में सरकारों के कामकाज की आलोचना या टिप्पणी करने के मीडिया के अधिकार रक्षा का स्वर मुखर हुआ। अदालत का मानना था कि तब तक मीडियाकर्मियों की राजद्रोह के प्रावधानों से रक्षा की जानी चाहिए जब तक कि किसी का हिंसा को उकसाने या सार्वजनिक अव्यवस्था पैदा करने का कोई इरादा न हो। एक वरिष्ठ पत्रकार द्वारा प्रधानमंत्री के विरुद्ध की गई टिप्पणी पर दर्ज राजद्रोह के मामले को रद्द करते हुए अदालत ने केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य (1962) में दिये गए ऐतिहासिक फैसले का हवाला देते हुए यह फैसला सुनाया कि यह आरोप तभी लग सकता है जब शब्दों अथवा अभिव्यक्ति में हानिकारक प्रवृत्ति होती है या फिर सार्वजनिक व्यवस्था या कानून-व्यवस्था में व्यवधान पैदा करने की मंशा हो। तभी आईपीसी की धारा 124ए यानी देशद्रोह और 505 यानी सार्वजनिक शरारत के आरोपों में कदम उठाया जा सकता है। शीर्ष अदालत ने तेलुगु समाचार चैनलों को भी उनके खिलाफ राज्य सरकार द्वारा दर्ज मामलों से संरक्षण प्रदान किया। इन चैनलों पर राज्य के मुख्यमंत्री की आलोचना करने पर राजद्रोह का मामला दर्ज किया गया था। इस मामले में शीर्ष अदालत ने सटीक टिप्पणी की कि औपनिवेशिक युग के कानून के दायरे और मापदंडों की व्याख्या करने की आवश्यकता है। खासकर इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया के अधिकारों के बाबत, जो देश में कहीं भी किसी भी सरकार से संबंधित जनहित में महत्वपूर्ण सामग्री प्रसारित प्रकाशित कर सकते हैं।

ऐसा भी नहीं है कि शीर्ष अदालत ने सत्ताधीशों द्वारा राजद्रोह कानून के दुरुपयोग की बाबत पहली बार टिप्पणी की हो। गाहे-बगाहे सर्वोच्च न्यायालय व उच्च न्यायालय वर्ष 1962 के फैसले के आलोक में इसे परिभाषित करने का प्रयास करते रहे हैं कि राष्ट्रद्रोह के क्या मायने हैं और इसकी सीमाएं क्या हैं। इसके अंतर्गत नागरिकों की अभिव्यक्ति की आजादी और स्वतंत्रता को संयमित करने के लिये बने कानूनों के दुरुपयोग को रोकने पर गंभीरता से ध्यान देने पर बल दिया गया। देश के संविधान में अनुच्छेद 19(1)ए के तहत अभिव्यक्ति की आजादी की स्वतंत्रता को परिभाषित किया गया है। लेकिन चिंता की बात यह है कि आलोचना के प्रति असहिष्णुता दिखाते हुए हाल के वर्षों में पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ बड़ी संख्या में राजद्रोह के मामले दर्ज किये गये हैं। हालांकि, ऐसे अधिकांश आरोप अदालतों में टिक नहीं पाते। दरअसल, इस कानून का दुरुपयोग राजनीतिक अस्त्र के रूप में असंतोष-आलोचना का दमन करने के लिये किया जाता है। निस्संदेह, नागरिकों को अपनी चुनी हुई सरकार की आलोचना करने का अधिकार है। आलोचना से सरकारों को आत्ममंथन का मौका मिलता है। आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2019 में दर्ज राजद्रोह के मुकदमों में सजा का प्रतिशत मात्र तीन था। सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसलों के बाद मीडियाकर्मियों को निर्भय होकर काम करने का अवसर मिलेगा। साथ ही उम्मीद है कि सत्ताधीशों को आईना दिखाने के बाद बात-बात में राजद्रोह के मामले दर्ज करके डराने की प्रवृत्ति घटेगी।