मारक महंगाई
देश में पेट्रोल-डीजल की सुलगती कीमतों के बीच थोक सूचकांकों पर आधारित महंगाई का करीब तेरह फीसदी होना आम आदमी को परेशान करने वाला है। ऐसे में केंद्र सरकार को इसे गंभीर स्थिति मानते हुए राहत के लिये कदम उठाने चाहिए। विडंबना यह है कि यह महंगाई ऐसे समय पर कुलांचे भर रही है जब देश का हर नागरिक कोरोना संकट से हलकान है। इस दौरान लॉकडाउन व अन्य बंदिशों से करोड़ों लोगों की आमदनी पर बुरा असर पड़ा है। चिंता की बात यह है कि थोक महंगाई के साथ ही खुदरा महंगाई दर भी तेजी से बढ़ी है। महंगाई की इस तपिश को आम आदमी दैनिक उपभोग की वस्तुएं खरीदने में महसूस भी कर रहा है। दिक्कत यह भी है कि देश में फिलहाल ऐसा सशक्त विपक्ष नहीं है जो जनता की मुश्किलों को जोरदार ढंग से उठाकर केंद्र पर दबाव बना सके। पिछले दिनों कांग्रेस ने जरूर देश के विभिन्न भागों में पेट्रोल-डीजल के दामों के खिलाफ प्रदर्शन किया था मगर घटती राजनीतिक ताकत के बीच उसकी आवाज में वो दम नजर नहीं आया जो केंद्र सरकार को बेचैन कर सके। लेकिन यह तय है कि आने वाले समय में केंद्र सरकार को इस महंगाई की कीमत का दंश झेलना पड़ सकता है। जनभावनाओं को लंबे समय तक दरकिनार नहीं किया जा सकता। कोरोना संकट से तनाव में जी रहे लोग सामान्य जीवन की आस में बैठे हैं, मगर बढ़ती महंगाई उनकी बेचैनी और बढ़ा रही है। निश्चित रूप से इस महंगाई के मूल में पेट्रोल-डीजल की कीमतों में लगातार हो रही तेजी भी है। इनकी तेजी से माल भाड़े में इजाफा होता है और जिसका प्रभाव हम तक पहुंचने वाली हर वस्तु पर पड़ता है। विडंबना यह भी है कि उपभोक्ता को जिस कीमत पर पेट्रोल-डीजल मिलता है, उसका अर्थशास्त्र यह है कि साठ फीसदी हिस्सा केंद्र व राज्य कर के रूप में वसूल लेते हैं। निस्संदेह कोरोना संकट में केंद्र व राज्यों की आय का संकुचन हुआ है और ऐसे में वे भी उपभोक्ताओं को राहत देने से कतरा रहे हैं।
सवाल यह है कि जब देश के कई राज्यों में पेट्रोल के दाम सौ रुपये के मनोवैज्ञानिक स्तर को पार कर गये हैं तो क्या केंद्र व राज्यों को अपने-अपने हिस्से के करों में कटौती करके जनता को राहत नहीं देनी चाहिए? विपक्षी दलों की राज्य सरकारें भी अपने हिस्से के टैक्स में कटौती करके केंद्र व भाजपा शासित राज्यों में ऐसा करने के लिये दबाव बना सकती हैं। कहने को केंद्र की दलील है कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल के दामों में बढ़त की वजह से पेट्रोल व डीजल के दामों में तेजी आ रही है। लेकिन जब दुनिया में कच्चे तेल के दामों में तेजी से गिरावट पहली कोरोना लहर के दौरान दिखी तो उसका लाभ तो उपभोक्ताओं को नहीं दिया गया। सवाल यह भी है कि जब लंबे समय से पेट्रोल-डीजल को जीएसटी के दायरे में लाने की मांग की जाती रही है तो क्यों इस दिशा में गंभीर प्रयास नहीं किये जाते दरअसल, परिवहन लागत से बढऩे वाली महंगाई के अलावा देश में लॉकडाउन लगने से वस्तुओं की आपूर्ति बाधित होने से भी महंगाई बढ़ रही है। मांग व आपूर्ति में असंतुलन होने से कीमतें बढऩा बताया जा रहा है। केंद्रीय बैंक भी बढ़ती महंगाई पर चिंता जता चुका है। रिजर्व बैंक यदि महंगाई पर काबू पाने के लिये मौद्रिक उपायों के तहत ब्याज दरों में वृद्धि करता है तो इससे उद्योगों व निवेश पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है। पहले ही कोरोना संकट से खस्ताहाल पहुंची अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की कोशिश में दिक्कत आ सकती है। उम्मीद है कि देश जैसे-जैसे लॉकडाउन के दायरे से बाहर आ रहा है, बाजार खुल रहे हैं और औद्योगिक उत्पादन में तेजी आएगी तो बाजार में मांग व आपूर्ति का अंतर कम होने से महंगाई में कमी आयेगी। फिर भी उम्मीद है कि सरकार आम आदमी को राहत पहुंचाने के लिये संवेदनशील व्यवहार करेगी और इस पर काबू पाने के लिये सक्रियता दिखाएगी।