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दिशाहीनता का शिकार किसान आन्दोलन

सात माह के किसान आंदोलन में क्या खोया क्या पाया

सात महीने पहले जब किसान आन्दोलन पंजाब से शुरू हुआ था तब उसके प्रति किसान, जनता और मीडिया में सहानुभूति थी। सरकार के सामने भी डर था कि इस आन्दोलन से कहीं उसको केन्द्र में बमुश्किल मिली सत्ता छिन न जाये। इसलिए वह भी आन्दोलन कारियों से वैचारिक मतभेद के बाद भी वार्ता करने के लिए आगे आई। लाल कारपेट बिछाए गए। किसान नेताओं की मिन्नतें करने में भी सरकार पीछे नहीं हटी। हर बार मोदी सरकार पर यह आरोप चस्पा किया जाता है कि सरकार निर्णय पहले लेती है उसके बारे में सोचती बाद में है जबकि इसका कोई प्रमाण सामने नहीं आया। वहीं किसान नेताओं ने चंद नासमझ नेताओं के कहने पर आन्दोलन शुरू करने से पहले यह विचार नहीं किया आन्दोलन को कितना आगे ले जाना है? करने का कारण क्या बताना है? और कितनी मांग स्वीकार होने पर उसे समाप्त करना है? सात माह के आन्दोलन के बाद भी किसान नेताओं की दिशाहीनता साफ दिखाई दे रही है। अब अपनी कौम की प्रतिष्ठा के लिए आन्दोलन में लोग जुड़ रहे हैं जबकि वे जानते हैं कि आन्दोलन में कोई दम नहीं बचा है। केन्द्रीय कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर ने फिर किसान नेताओं का आव्हान किया है कि वे चाहते क्या हैं यह बता दें, सरकार उनकी मांग पर सहानुभूति पूर्वक विचार करके निर्णय लेगी। अब आन्दोलन करने का कोई अर्थ नहीं है। आन्दोलन तब किये जाते हैं जब सरकार मांग पर विचार करने को ही तैयार नहीं होती हो।

यह विषय आन्दोलन के बीच में ही आ गया था कि आखिर किसान नेता चाहते क्या हैं? जिन तीन कानूनों को समाप्त करने की जिद किसान नेताओं के द्वारा की जा रही है वे आज तक उनसे होने वाले नुकासान या कमियों को रेखांकित नहीं कर पाये हैं? किसानों को एमएसपी नहीं मिलेगी यह तथ्य सरकार से पूर्ववर्ती और आज के व्यवहार से खारिज हो जाता है। सरकार किसानों को अपना उत्पाद खुले बाजार में बेचने के लिए जरूरी सहयोग देने को तैयार है, साथ में सरकारी खरीदी को भी जारी रखना चाहती है। सरकारी खरीदी करना सरकार की जरूरत है उपकार नहीं है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए इसकी जरूरत है। सेना तथा अन्य आपदाओं के लिए भी अनाज संग्रहण की जरूरत भी सरकार को रहती है। वैसे भी बाजार में आवक के समय मंदी न आये इसका सहयोग भी एमएसपी से मिलता रहता है। ऐसे में किसान नेताओं को आशंका के आधार पर सरकार विरोधी बात करने का कोई औचित्य दिखाई देता है।

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जिन तीन कानूनों को काला कानून बता कर उन्हें पूर्णरूप से समाप्त करने की मांग किसान आन्दोलन में की जा रही है। उनके बारे में देश में बड़ी सख्या का किसान उसे सुधारवादी मानता है जबकि गैर भाजपा विचारधारा के किसान नेता उसे किसान विरोधी बता रहे हैं। जबकि सरकार, मीडिया और अन्य प्लेटफार्म पर किसान नेताओं से इसके किसान विरोधी प्रावधान पूछे गये तो वे उसका कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाये। देश वर्षों से आर्थिक सुधार के लिए नये-नये कानून व व्यवस्थाएं कर रहा है। कृषि सुधार के बिना देश की आर्थिक स्थिति को सुधारा नहीं जा सकता इसलिए कृषि सुधार की दिशा में स्वामीनाथन समिति की मंशा के अनुसार सुधार किये गये हैं। किसान नेतृत्व इससे बेहतर विकल्प बताने की बजाये सुधार के लिए सरकार की मंशा के बिलों को समाप्त करने भर की मांग कर रहा है। याद होगा ही कि अन्ना आन्दोलन की सफलता का प्रमुख कारण यह था कि उन्होंने जिस व्यवस्था को बदले जाने की मांग करते हुए आन्दोलन किया था उस लोकपाल कानून का अपना प्रारूप भी केन्द्र सरकार को सौंपा था। दूसरी तरफ शाहीन बाग आन्दोलन की हवा इसलिए निकली क्योंकि उसके पास कोई वैकल्पिक सुझाव नहीं था। यही कारण है कि अत्याधिक सम्मान पाने के बाद भी किसान आन्दोलन की स्थिति अन्ना आन्दोलन जैसी बनने की बजाए शाहीन बाग के आन्दोलन जैसी बन गई है।

आन्दोलनकारी अपनी मांग को मनवाने के लिए हिंसक होते रहे हैं। हालांकि जब कानून को हाथ में लेना होता है इसके बाद भी ऐसी स्थिति बनती है। यह हिंसक स्वरूप कभी मर्यादा को नहीं तोड़ता। मसलन राष्ट्रीय महत्व के प्रतीकों का असम्मान नहीं करते, बीमार मरीज की सुरक्षा में बाधा नहीं डालते, सेना के सम्मान को आंच नहीं आने देते। ऐसे अनेक विषय हैं जिनका ख्याल रखा जाता है। किसान आन्दोलन में इनमें अधिकांश मानदंडों की अनदेखी की गई। लालकिले की घटना हो या गणतंत्र दिवस पर सेना के प्रदर्शन के साथ अपना प्रदर्शन करने की बात हो किसान आन्दोलन की भावनाओं को किसान समर्थक बनाने की चूक करते रहे हैं। सरकार की भावनाओं में भी आन्दोलन के प्रति सहिष्णु होने से रोकते हैं और सहानुभूति रखने वाले मीडिया के मन में भी सवालों को जन्म दे देते हैं। लेकिन किसान नेता इन सभी बातों की अनदेखी कर रहे हैं।
संभावनाओं से विपरीत आचरण करके किसान नेतागण खुद को सत्ता का प्रर्वत्तक मान लेते हैं। इन दिनों किसान नेता दावा कर रहे हैं कि उन्होंने ही बंगाल के चुनाव में भाजपा की सरकार नहीं बनने दी। जबकि इस दावों को प्रमाणित करने के लिए उनके पास कोई प्रभावकारी तर्क नहीं हैं। यदि चुनावी समीकरणों को देखा जाये तो बंगाल में मुस्लिम प्रभाव वाली सभी विधानसभा सीटें तृणमूल कांग्रेस के खाते में गई हैं। इन सीटों पर किसान आन्दोलनकारियों का कोई प्रभाव नहीं था। जबकि ये तो भाजपा विरोधी मुस्लिम मानसिकता का प्रतिफल था। भाजपा ने सत्ता का सपना बंगाल में देखा था लेकिन सभी को यह पता था कि बंगाल में भाजपा का प्रवेश रोकने के लिए कांग्रेस और वाम दलों ने अपनी शून्य की स्थिति लाने तक के लिए हथियार डाल दिये थे। किसान नेता ऐसा ही यूपी में करने की बात कर रहे हैं। यूपी से आने वाले राकेश टिकैत दो बार चुनाव में भागीदार हो चुके हैं। वे बालियान खाप के मुखिया परिवार के होने के बाद भी दोनों बार अपनी जमानत नहीं बचा पाये। इसलिए वे किसी राजनीतिक पार्टी को हराने का दंभ कैसे भर रहे हैं यह दावा भी खोखला हो सकता है।

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इसलिए जरूरत यह है कि किसान नेता किसान हित की बात करें और आन्दोलन की विरोधी दिखने वाली मानसिकता को राजनीतिक रूप से बाहर न आने दें। किसान नेताओं को आज भी सरकार का आव्हान है। जबकि नेतृत्व उसकी ध्यान रखने की बजाये मुकदमें वापस लेने की बात कर रहा है। जबकि आन्दोलनों में प्राय होता आया है कि जब आन्दोलन पर समझौता होता है तब मुकदमें खुद की सरकार वापस ले लेती है। इसिलए समय की जरूरत यह है कि किसान नेता सरकार के सामने कानूनों की कमी की बात को स्पष्ट और प्रमाणों के साथ रखकर कानून में संशोधन करवायें। कानूनों को यदि स्वीकार करने की स्थिति नहीं है तब कानून का नया प्रारूप सरकार को सौंपे ताकि कृषि सुधार की दिशा में सरकार के उठे कदम किसानों के हित के लिए उन तक पहुंच सकें। एमएसपी के लिए सरकार की प्रतिबद्धता को स्थाई बनाने के लिए कोई न कोई रास्ता निकालने का रास्ता दिखायें। आन्दोलन किसान नेताओं की एनर्जी खत्म करने का तरीका नहीं बनना चाहिए। आज दो ही सवाल समीक्षकों के जहन में हैं और सभी को मिलकर उन पर विचार करना चाहिए। यह आन्दोलन किसान और सरकार की प्रतिष्ठा का प्रश्र नहीं बनना चाहिए। हालांकि ऐसा होता हुआ दिखाई दे रहा है। ऐसा होने की स्थिति में किसानों को बड़ा नुकसान होगा। यदि सरकार सुधार से पीछे हटती है तब किसानों की आर्थिक सेहत का नुकसान होगा और आन्दोलन बेनतीजा रहता है तब किसान आन्दोलन की संभावना वर्षों के लिए समाप्त हो जायेगी जिससे सरकारों को कृषि क्षेत्र में मनमाने निर्णय का रास्ता मिल जायेगा। ऐसी स्थिति में किसान आन्दोलन की दिशाहीनता को समाप्त करके किसान हित में वापस लाना जरूरी है। अभी यह आन्दोलन राजनीतिक प्रतिष्ठा और राजनीतिक विरोध की दोड़ में शामिल हो गया है। जहां अपनों की लाज बचाने के लिए समर्थन देना मजबूरी हो गया है। यही आन्दोलन की ताकत भर है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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सुरेश शर्मा