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न भरोसे का चीन, न वायरस-न वैक्सीन

कहते हैं कि महंगा रोए एक बार, सस्ता रोए बार-बार। कहा तो यह भी जाता है कि आंख देखे जीती मक्खी निगली नहीं जाती। तब भी लोग मानते नहीं और सस्ते के चक्कर में या फिर चमक-दमक के फेर में पड़ जाते हैं। यह तो हम सब जानते हैं कि चाइनीज माल की कोई गारंटी नहीं रहती। चल गई तो महीनों, सालों निकाल दे अन्यथा घर लाए और मालूम पड़ा कि हवा निकल गई यानी फुस्स मार गई। वैसे भी चाइनीज माल के बारे में कहा जाता है कि यूज एंड थ्रो क्योंकि उसके रिपेयर होने की कोई गारंटी भी नहीं। फिर भी मार्केट को केप्चर कर ही रखा है।

बस ये एक कोरोना नाम का चाइनीज वायरस ही ऐसा निकला है, जिसे यूज एंड थ्रो नहीं कर सकते। उसका तो यही कहना है कि खुद भी वापरो,परिवार को भी हाथों हाथ दो, पास-पड़ोसियों और रिश्तेदारों को भी बिना मॉस्क खुले मुंह से बांटो। जो लोग इस चाइनीज वायरस का यूज करते हुए थक चुके हैं, उनके लिए वायरस का एंटी डोज भी उसने तैयार कर दिया ताकि लोग इसके लिए पड़ोसी मुल्कों की तरफ न झांके। इस मामले में उसने दूसरे बड़े बनियों को पछाड़ दिया। अमेरिका, ब्रिटेन जैसे बड़े व्यापारी यही माल बेचने में कंजूसी दिखा रहे थे और चायनीज वैक्सीन आसानी से मिलने वाला माल समझ कई छोटे-मोटे देश ललचा रहे थे।
इस चाइनीज माल के चक्कर में कई देशों ने अपनी जनता को भरमा दिया। मंगोलिया ने देशवासियों से वायदा कर दिया कि इस बार गर्मी का सीजन कोरोना मुक्त होगा। बहरीन ने अपने लोगों से कहा कि जल्दी ही सामान्य जिंदगी लौटेगी। लेकिन चाइनीज वैक्सीन की चकाचौंध में इन देशों ने जीती मक्खी निगल ली और अब आंसू बहाए चले जा रहे हैं। दरअसल वायरस अभी और झूम-झूमकर रूप बदल-बदलकर तीसरा शो लेकर जलवे दिखाने की मुद्रा में आ गया है।

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आधी से ज्यादा आबादी के टीकाकरण के बावजूद इन देशों में कोरोना नये जलवों के साथ ता-थैया, ता-थैया करने लगा है। इसीलिए भैया कहते हैं कि भरोसे की भैंस पाड़ा ही जनती है। इन देशों की भरोसे की भैंस चायनीज सिनोफार्म और सिनोवैक बेवफा निकली। बहरीन, चिली, सेशेल्स और मंगोलिया ने भरोसे में आकर टीके लगाने की रफ्तार में अमेरिका को भी पीछे छोड़ दिया था। चीन से करीब नब्बे देशों ने वैक्सीन खरीद ली। इन सबकी चिंता अब यह है कि इतनी चाइनीज वैक्सीन लगने के बाद भी संक्रमण की दर क्यों बढ़ रही है। माना यह जा रहा है कि संक्रमण पर अंकुश लगाने में चाइनीज वैक्सीन का असर बेहद कम है। अब चीनी प्रभाव के चक्कर में जीती मक्खी निगल ही ली है तो रोना तो पड़ेगा ही!

प्रदीप उपाध्याय