दिल्ली का अध्यापन अध्याय अध्यापक अध्ययन नीति
मैं दिल्ली के कैलाशपुरी में 6 वर्ष रहा वर्ष 1999 में मैं पहलीबार सागरपुर कैलाशपुरी डेसू कलोनी गया यहां मेरी रिश्तेदारी थी। केलासपुरी के जिस घर में मैं रहता था मेरा पासपोर्ट आधारकार्ड पैनकार्ड ड्राइविंग लाइसेंस पोस्टपेड सिम कार्ड वोटर कार्ड आज भी उसी पते पर रजिस्टर हैं मैंने सिर्फ शहर बदला मेरा पता आज भी दिल्ली हैं। मैं चाहता था सब कागजों में अपना पता बदल सकता था पर मैंने ऐसा नही किया। आज मैं दो राज्यों का नागरिक हूँ। सागरपुर इंद्रा पार्क कैलाशपुरी सादनगर पार्ट 1 पार्ट 2 में मेरा रोज का आना जाना था इस क्षेत्र में लगभग 9 सरकारी विद्यालय हैं जिन में 2012 से 2017 तक हम ने किसी NGO के माध्यम से नशामुक्ति शिविरों का आयोजन किया था। प्राथमिक विद्यालय में भी हमें नशामुक्ति कार्यकर्मियों का आयोजन करना पड़ा सोचिए वहां शिक्षा का स्तर क्या होगा। इंद्रा पार्क व सागर पुर के विद्यालय टैंट में संचालित होते थे जिन के विद्यार्थी कक्षा में कम मुहल्ले में अधिक घूम रहे होते थे।
एक बार मैंने अपने भतीजे अमन रावत को गुस्से में यह कह दिया था कि यदि तू ठीक से पढ़ाई नही करेगा तो तुझे टैंट वाले स्कूल भेज दूंगा तो वह उसी डर से शिक्षा पर ध्यान देने लगा। उसे डर था कि यदि में अपनी शिक्षा पर ध्यान नही दूंगा तो टैंट वाले स्कूल सागर पुर पहुच जाऊंगा। मेरा भतीजा अमन रावत कक्षा 12 वीं में रेन्वो स्कूल जनकपुरी पढ़ता था। संयोगवश मैने कुछ दिन पहले उस के जन्मदिन पर उसे सरकारी स्कूल जाने का ऑफर किया तो उस का कहना था चाचा यदि इस बार मैं 12वीं में नही होता तो सरकारी स्कूल चला जाता वैसे मेरी हिन्दी बहुत कमजोर हैं पर मैं मैनेज कर लेता। मुझे प्रसासनिक अधिकारी बनना है जिस के लिए हिन्दी ठीक होनी चाहिए। उस का कहना था दिल्ली के सरकारी स्कूल अमरीका नॉर्वे डेनमार्क कनाडा जापान के स्कूलों की तरह हैं। पर मुझे मालूम नही वह सही कह रहा था या गलत । एक समय था जब वह मुहल्ले के उन बच्चों के साथ बात भी नही करता था जो सरकारी स्कूल में पढ़ते।थे उस का कहना था इन बच्चों में जीवन के प्रति कोई संवेदना नही होती यह बच्चे झगड़ालू नशेड़ी व गाली गलोक वाले होते हैं। जो मेरे हिसाब से 80% सत्य भी था। उस दौर में सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले 80% झोपड़पट्टी के लोग होते थे या ध्याडी मजदूरी करने वालों के बच्चे।
मैं अब दिल्ली नही रहता हूँ 2018 में मैंने दिल्ली छोड़ दिया हैं मैं अपने पैतृक गाँव रहता हूँ यहां मेरे बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ते हैं। शिक्षक बहुत बेहतरीन कर रहे हैं पाठयक्रम जैसा सब के बच्चों के लिए है मेरे बच्चों के लिए भी हैं। दिल्ली में जिस तरह से स्कूलों का पुरनिर्माण हुआ वैसा उत्तराखण्ड में नही हैं। आज जिस स्कूल में मेरे बच्चे पढ़ते हैं वहां 2 शिक्षक हैं लगभग 57 से अधिक बच्चे हैं पिछले वर्ष 59 बच्चों पर 2 शिक्षक थे। यह विद्यालय जिला पौड़ी का सब से बेहतरीन विद्यालयों की लिस्ट में आता हैं हर प्रकार से इस विद्यालय के बच्चे अब्बल है। विगत वर्ष वैकल्पिक व्यवस्था में 1 अध्यापिका की नियुक्ति अभिभावकों द्वारा किया गया था पर अब इस वर्ष वह भी नही हैं।
दिल्ली की शिक्षा नीति को मैने बारीकी से देखा परखा हैं वहां विद्यालय भवन के साथ साथ शिक्षकों बच्चों व अभिभावकों का मानसिक विकास भी हुआ हैं शिक्षा नीति में ढांचागत परिवार हुआ हैं। स्कूलों में वह सब है जो यूरोपियन शिक्षा नीति में हैं। दिल्ली के सरकारी स्कूलों में जो शिक्षा दिया जा रहा है वह दिल्ली के निजी स्कूलों में भी नही हैं। मैं ऐसे अनेकों निजी स्कूलों को जानता हूँ जिन की शिक्षा नीति दिल्ली के सरकारी स्कूलों से बहुत नीचे हैं। दिल्ली की शिक्षा नीति पर मनीष सिसोदिया व आतिशी जी से मेरी अनेकों बार बात भी हुई।यही वो दो लोग है जिन्होंने दिल्ली का शिक्षा मॉडल तैयार किया हैं।
सवाल यह हैं कि दिल्ली में जब यह हो सकता हैं तो इस का 20% भी उत्तराखण्ड में क्यों नही हो सकता। भौगोलिक विषमताओं वाले जिलों में यदि नही हो सकता तो तराई के 4 जिलों में ही आप दिल्ली की शिक्षा नीति को अपना लीजिए हम इसी में खुस हो जाएंगे कि हमें नही मिला कोई बात नही किसी न किसी को तो मिल रहा हैं। हम पंगु बन गए हैं हमें शिक्षा नही धर्म चाहिए हमें अच्छे में भी आलोचना खोजनी हैं। हमारी समस्या कोई और नही सिर्फ हम है जिसे हम बदलना नही चाहते हैं।
देवेश आदमी