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आंखिर पुलिस क्यों चाहिए ?

देवभूमि में लगातार बढ़ते अपराधों को यदि गहनता से देखा जाए तो यह महज सिस्टम की विफलता के और कुछ भी नही है। राजनीतिक दख़ल ने क़ानून की नज़रों में आधुनिक पट्टी बाधने का काम ठीक वैसे ही किया है जैसे दो नदियों को पार करने के लिए एक लोहे की सेतु करती है। अब इससे बड़ा दुर्भाग्य हम उत्तराखंडियों के लिए क्या हो सकता है जब यहाँ हो रहे अपराध की विवेचना वह करने लगे जो खुद अपराध कर यहां क़ाबिज़ हुआ हो।

उत्तराखंड में दरोगा भर्ती घोटालों के बाद उठे सवालों से दबी ज़ुबान से एक नई बहस शुरू हुई है। लोग सवाल कर रहे हैं -आखिर हमे पुलिसिंग की जरूरत ही क्या है? पुलिस विभाग को पूरी तरह से बंद कर कोई दूसरा तरीका खोजने की बात हो रही है। उनका मानना है पुलिस ने समाज का फायदा कम किया है, नुकसान ज्यादा। वे मानते हैं कि पुलिस बर्बर और नस्लवादी है।

आज जिस तरह की पुलिस है, उसका इतिहास लगभग 200 साल पुराना माना जाता है। इस लंबे समय में बहुत कुछ बदल गया है। रोजी रोटी कमाने के तरीके, जीवन विश्वास, टेक्नोलॉजी, सामाजिक-पारिवारिक व्यवस्थाएं ! मगर अपराध रोकने के लिए हमने कोई नया तरीका नहीं खोजा। हम अब भी पाषाण युग में जी रहे हैं ,जब यह माना जाता था कि अपराध होने के बाद अपराधी को कड़ा दंड दिया जाए जो एक मिसाल बने ,ताकि दूसरे लोग अपराध करने से डरें। पर क्या सचमुच में ऐसा हुआ ? कई विद्वान मानते हैं कि किसी भावी अपराध को रोकने के लिए यह मिसाल कायम करना बेहद खर्चीला उपाय है और इसका असर बहुत कम है। अब लोग कह रहे हैं आप उन कारणों को ही क्यों खत्म नहीं कर देते जिनकी वजह से अपराध होते हैं।

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चोरी की समस्या को ही लीजिए। एक चोर को ढूंढना, पकड़ना, न्याय प्रक्रिया से गुजरते हुए उसे सजा दिलवाना, फिर बरसों जेल में रखना ! यह प्रक्रिया जितनी श्रम साध्य और खर्चीली है, उससे बहुत कम में कुछ ऐसा किया जा सकता था कि उस व्यक्ति को चोरी करने की जरूरत ही ना पड़ती। यह मूलतः आर्थिक विषमता की समस्या थी जिसे हमने कानून के औजार से सुलझाना चाहा। लोग कह रहे हैं अपराधी को पकड़ने में नहीं , अपराध ना हो इस बात पर दिमाग लगाया जाए।

कोई भी समस्या, कानून की समस्या बनने से पहले आर्थिक , सामाजिक या मानसिक समस्या होती है। वह समाज का ध्यान अपनी ओर खींचने की कोशिश करती है। जब समाज उसका इलाज नहीं करता तो वह आखिरकार एक कानूनी समस्या में बदल जाती है। एक पति, चरित्र की शंका में अपनी पत्नी की हत्या करता है। हम कानून व्यवस्था का हवाला देकर पुलिस को कोसते हैं। मगर बुनियादी रूप से यह समस्या पुलिस की नहीं सामाजिक और मानसिक स्वास्थ्य की थी। यदि समय रहते पति पत्नी को मनोवैज्ञानिक सलाह दी जाती तो यह नौबत नहीं आती। इस तरह के अपराधों को रोकने में पुलिस का दंड की मिसाल वाला तरीका पूरी तरह से नाकामयाब है।
अपराध मनोविज्ञान हमें बताता है कि हत्यारे, बलात्कारी अक्सर मनोरोगी होते हैं। इन्हें पुलिस की नहीं डॉक्टर की जरूरत होती है। मगर हम उनका इलाज कानून नाम के औजार से करना चाहते हैं। इसलिये बात बनती नहीं। जेल से छूट कर वे फिर वही करते हैं।

मगर फिर भी हम समाज की हर समस्या पुलिस के सर डालना चाहते हैं। एक सिपाही सुबह किसी लावारिस बच्चे को थाने लेकर आता है, दोपहर को एक दुर्दांत अपराधी एनकाउंटर करता है और शाम को दो पड़ोसियों का मामूली झगड़ा सुलझाता है। यह तीनों काम अलग किस्म के हुनर और मानसिक बनावट की मांग करते हैं, जो एक व्यक्ति में नहीं हो सकते। कोई आत्महत्या करे तो पुलिस, नशा करे तो, दुर्घटना हो जाये तो पुलिस !

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हमने पुलिसिंग को जैसे कोई मुरब्बा बना दिया है। पिछले कुछ सालों में हर छोटी बड़ी बात में पुलिस का दखल बढ़ा है। परिवार या पड़ोसियों के छोटे-मोटे मसले जिन्हें पहले बड़े बूढ़े डांट डपट कर समझा सुलझा देते थे, अब पुलिस के जिम्मे हैं। स्कूली बच्चों की शरारतें भी अब पुलिस की केस डायरी में दर्ज होने लगी हैं। इनमें से ज्यादातर काम ऐसे हैं जिनके लिए पुलिस न तो प्रशिक्षित है ना इच्छुक ! हम ओवर पुलिसिंग के युग मे जी रहे हैं।

इसलिए अमेरिका के लोगों की तरह ही यहाँ भी बुद्धिजीवीयों को आगे आकर कहना चाहिए, पुलिस के कुछ काम छीन कर नए किस्म की एजेंसियों को सौंपे जाएं, जो विशेषकर इसके लिए प्रशिक्षित हों। पुलिस पर खर्च करने के बजाय यह पैसा हमें शिक्षा और स्वास्थ पर खर्च करना चाहिए।

शिक्षाविद ,मनोवैज्ञानिक, अर्थशास्त्रियों, नेताओं को कहना चाहिए की वे कुछ ऐसा करें कि अपराध न हों। कहते हैं -“युद्ध राजनीति की विफलता है!” इसी तर्ज़ पर पुलिसिंग की आवश्यकता को भी राजनीति और समाज की विफलता का परिणाम माना जाना चाहिए।

मगर कुछ लोग मानते हैं कि अपराधी बनते नहीं, पैदा होते हैं। फिलहाल इसके बारे में ठीक से कुछ नहीं कहा जा सकता। भविष्य में जेनेटिक इंजीनियरिंग हमें इसका ठीक-ठीक जवाब शायद दे सके। तब तक हमें उन लोगों के बारे में सोचना चाहिए जिन्हें दुनिया ने अपराधी बनाया।

पुलिसिंग की बहस में कानून को भी शामिल किया जाना चाहिए। कई कानून किसी रूढ़ि की तरह पुराने और रोग ग्रस्त हो चुके हैं। हर कानून के मूल में आखिरकार एक सामाजिक और नैतिक मान्यता ही होती है जो उसकी आत्मा होती है। समय और स्थान के साथ ये मान्यताएं बदलती हैं , मगर कानून जड़ हो जाता है। बेतुके कानूनों की वजह से कभी कोई अमनपसंद शहरी अचानक अपराधी करार दे दिया जाता है। पुलिस और अदालत कानून की आत्मा को नहीं जानते वे बस शरीर पकड़ लेते हैं।

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आज के हालात में पुलिस के बगैर दुनिया की कल्पना भी नहीं की जा सकती। एक दिन को भी पुलिस अपना काम बंद कर दे तो सब ओर अराजकता फैल जाएगी, लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि पुलिसिंग सभ्यता की राह में एक पड़ाव है मंजिल नहीं। पुलिस, न्यायालय, यहां तक कि सरकार भी एक इंतज़ाम है जिसे इंसानी समाज ने अपनी सेवा के लिए बनाया है। समाज को हक़ है कि समय समय पर इनसे होने वाले फायदे नुकसान की जांच करे, इनमें बदलाव करे या खत्म कर दे।

नेताओं के तो अब बस की नही वो इसका भी उपयोग अपने निजी फ़ायदे के लिए करने में कहां पीछे हैं तो हमें ही इस तरह की बहस का स्वागत करना चाहिए।

राजकुमार सिंह परिहार