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‘काले कौवा काले घुघुति माला खा ले’

सदियों से हमारे कुमाऊं क्षेत्र में एक विशेष तरीके से मनाया जाने वाला उत्सव जो मौसम के बदलाव और प्रवासी पक्षियों की वापसी का संकेत देता है। इसे काले कौवा (काले कौवे) या घुघुती (एक अन्य स्थानीय पक्षी का नाम) का त्योहार कहा जाता है। लोग आटे, गन्ने की चीनी और घी से डीप-फ्राइड व्यंजन बनाते हैं। मीठे आटे को अनार, ड्रम, ढाल और तलवार के आकार में बनाया जाता है। एक बार जब वे पक जाते हैं, तो आकृतियों को हार बनाने के लिए पिरोया जाता है जिसे घुघुती (पक्षी का समान नाम) कहा जाता है, जिसके बीच-बीच में एक नारंगी (छोटा संतरा) भी पिरोया होता है। बच्चे सुबह उठकर इन्हें पहनते हैं।

बच्चे बाहर जाते हैं और कौवों को ज़मीन पर लौटने का निमंत्रण देते हैं—
“काले काले, भूल बाटे अइले!”
(काले, काले, अब घर आओ!)

बच्चे पक्षियों को अपने हार से भोजन देते हैं और बदले में आशीर्वाद मांगते हैं। पक्षियों को प्रसाद चढ़ाने के बाद, बच्चों को दिन भर उनके हार पहनने को मिलते हैं और वे जब चाहें तब भोजन खाते हैं। मजाल है इस दिन कौवा लाख बुलाने पर भी आ जाये। तब से हमारे यहां एक कहावत प्रसिद्ध है, “घुघुतियक जै काव कस अकड़ रो”। पर आज पक्षियों का वह निमंत्रण तुरन्त बिन बुलाए मेहमान बंदर स्वीकार कर बच्चों को डरा उनकी माला ही लपक ले रहे हैं।

मीठे आटे से यह पकवान जिसे ‘घुघुत’ नाम दिया गया है। सदियों से चली आ रही परम्परा के अनुरूप आज भी इसकी माला बनाकर बच्चे मकर संक्रांति के दिन अपने गले में डालकर कौवे को बुलाते हैं और कहते हैं –

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‘काले कौवा काले घुघुति माला खा ले’।
‘लै कौवा भात में कै दे सुनक थात’।
‘लै कौवा लगड़ में कै दे भैबनों दगड़’।
‘लै कौवा बौड़ मेंकै दे सुनौक घ्वड़’।
‘लै कौवा क्वे मेंकै दे भली भली ज्वे’।

पारम्परिक पर्वों का अद्भुत अनुभव लेने एक बार आप भी देवभूमि अवश्य आइए। यहां के स्नान, ध्यान, ज्ञान व पकवान आपको अभिभूत कर देंगे। यहां कि समृद्ध संस्कृति व विरासत आपको अभिभूत कर देगी।

राजकुमार परिहार