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अगर पुरुषों को माहवारी होती?

यदि स्त्रियों के बजाय पुरुषों को माहवारी होने लगती तो ये पितृसत्तात्मक समाज इसे पुरुषों के लिए उनकी मजबूती व श्रेष्ठता का प्रमाण मानती साथ ही माहवारी के दौरान भावनात्मक अनियंत्रण में हो जाने वाले अपराध को भी कोर्ट में संज्ञा दे दी जाती की जज साहब मुल्जिम से ये अपराध मुश्किल दिनों के दर्द में हुआ है।
पुरुषों के लिए माहवारी संघ भी बन जाता जिसमें तमाम तरह की समस्याएं व नैपकिंस मुफ्त में उपलब्ध होती ।

भाषण देने के दौरान अचानक विधायक जी का कुर्ता लाल हो जाता और भाषण बीच में स्थगित कर दिया जाता ,जनता में गौरव का क्षण होता हमारे विधायक जी कितने मजबूत हैं एक तरफ खून बहा रहे दूसरी तरफ भाषण दे रहे ।

किसी दिन खबर आती ट्रेन कुछ घंटे लेट हो गई है,वजह लोकोपायलट की माहवारी का पहला दिन।
पायलट ने प्लेन 2 घंटे लेट से नीचे उतारा क्योंकि बीच आसमान में माहवारी के दौरान पेट में ऐंठन से जूझना पड़ा उसे ।
न्यूजपेपर में हेडलाइन होती 2 घंटे हवा में टंगा रहा जहाज जांबाज पायलट ने माहवारी के दौरान हुई पेट में ऐंठन झेलकर की सेफ लैंडिंग ।

  • संसद में माहवारी सत्र होता
  • सड़कों पर ” रेड लाइव्स मैटर” होता

यदि पुरुषों को माहवारी होती तो आज हम इतिहास में पढ़ रहे होते की पहला माहवारी सम्मेलन कहां हुआ था ।

खैर इस खयाली दुनिया से बाहर निकलें तो मुद्दे की बात बस यह है कि स्त्रियां जो बिना किसी विशेषाधिकार या लाभ के माहवारी झेलते हुए मजबूती से हर काम कर रही चाहे फिर वो खेत में काम कर रही मजदूर महिला या फिर स्कूल जाती बच्ची या फिर किसी भी उच्च या निम्न श्रेणी की शहरी या ग्रामीण महिला जो घर परिवार व समाज की तमाम जिम्मेदारियों को संभाल रही ऐसे में माहवारी को उनकी कमजोरी क्यों समझी जाती है इस प्राकृतिक चीज से वर्ग विशेष को जोड़कर उन्हें कमजोर समझना या कहना गलत है ।
समाज में इन विषयों को जिस तरह से टैबू बना दिया गया है ऐसी संवेदनशील चीजें जिसे लेकर समग्र समाज को जागरूक होना चाहिए क्योंकि जागरूकता व जानकारी के अभाव के चलते महिलाओं व लड़कियों को तमाम तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ता है

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यूनिसेफ के एक अध्ययन के अनुसार भारत में 71% किशोरियों को माहवारी के बारे में जानकारी नहीं है । 79% महिलाओं को मासिक धर्म के कारण आत्मविश्वास में कमी का सामना करना पड़ता है , 44% महिलाएं प्रतिबंधों के कारण शर्मिंदगी महसूस करती हैं ।

एक सामाजिक संस्था दसरा ने 2019 में एक रिपोर्ट जारी की थी जिसमें बताया गया था कि 2.3 करोड़ लड़कियां हर साल स्कूल छोड़ देती हैं क्योंकि माहवारी के दौरान स्वच्छता के लिए जरूरी सुविधाएं उपलब्ध नहीं है ,इनमें सैनिटरी पैड्स की उपलब्धता और पीरियड्स के बारे में समुचित जानकारी शामिल नहीं है।

अगर बात करें पीरियड पावर्टी यानी मासिक धर्म गरीबी की तो यह एक ऐसी स्थिति है जिसमें महिलाओं और लड़कियों की मासिक धर्म के दौरान स्वच्छता उत्पादों तक पहुंच नहीं होती
उनके सामने समस्या होती है कि वे खाने के लिए भोजन का इंतजाम करें या फिर मासिक धर्म संबंधित उत्पादों का

विश्व बैंक का अनुमान है कि दुनिया भर में कम से कम 500 मिलियन महिलाओं और लड़कियों को अपने मासिक धर्म को प्रबंधित करने के लिए आवश्यक सुविधाओं तक पहुंच नहीं है ।

मासिक धर्म गरीबी के प्रकार(source AI)

  • पहुंच से सम्बन्धित
  •  सामर्थ्य से संबंधित
  • शर्मिंदगी और शर्मिंदगी का डर
  • पर्यावरण की दृष्टि से – आपूर्ति एवं स्वच्छता सुविधाओं का अभाव ।

अगर बात की जाए इन समस्याओं के निदान की तो सरकार को मासिक धर्म उत्पादों पर कर कम करना चाहिए और उन्हें मुफ्त या कम दाम पर उपलब्ध कराना चाहिए साथ ही शिक्षा व जागरूकता कार्यक्रम के माध्यम से मासिक धर्म के बारे में जानकारी प्रदान की जानी चाहिए इसके लिए सरकार जागरूक महिलाओं व पुरुषों को वालेंटियर के तौर पर रख सकती है जो इनके लिए रोजगार का अच्छा विकल्प होगा साथ ही समाज में टीम वर्क के जरिए अच्छा प्रोग्रेस होगा और इस विषय को लेके जो भेद भाव की खाई है वो भी मिटेगी। साथ ही सरकार को महिलाओं के लिए माहवारी स्पेशल टॉयलेट्स की व्यस्था करानी चाहिए व माहवारी अवकाश पर बिना किसी भेद भाव के निर्णय लेना चाहिए और 28 मई मासिक धर्म स्वच्छता दिवस को हाइलाइट करने के लिए लोगों तक इसकी समझ विकसित करने के लिए कार्यक्रम आदि कराए जाने चाहिए । इस पितृसत्तात्मक सोच वाले समाज में ऐसे मुद्दों पर बदलाव तभी संभव है जब एक पुरुष मुखिया ऐसे विषयों पर संवेदनशील होगा व खुद मुहिम छेड़ेगा फिर चाहे वह घर का मुखिया हो या देश का।

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लेखिका- सौम्या शुक्ला