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शहीद उधम सिंह ने 21 साल बाद लिया था जलियांवाला बाग नरसंहार का बदला

देश आज महान शहीद ऊधम सिंह का बलिदान दिवस मना रहा है। ऊधम सिंह भारत माता के वह वीर सपूत हैं जिन्होंने अमृतसर के जलियांवाला बाग नरसंहार का बदला लेने के लिए उस समय पंजाब के लेफ्टिनेंट गर्वनर रहे माइकल ओ डायर की लंदन में जाकर गोली मारी थी। वो 26 दिसंबर का दिन था जब उन्हों्ने लंदन में डायर को गोली मारकर अपनी वर्षों पुरानी प्रतिज्ञा पूरी की थी। ऊधम सिंह को डायर की हत्या के आरोप में 31 जुलाई, 1940 को फांसी दे दी गई थी।

13 अप्रैल, 1919 को बैसाखी के दिन अमृतसर के जलियांवाला बाग में एक सभा रखी गई थी। शहर में कर्फ्यू लगे होने के बाद भी इसमें सैकड़ों लोग शामिल थे। बैसाखी के दिन मेला भी लगा था। बाग में भीड़ बढ़ती ही जा रही थी। तभी ब्रिगेडियर जनरल माइकल ओ डायर सैनिकों को लेकर वहां पहुंचा। उसने वहां पर मौजूद निहत्थे। लोगों पर गोलियां चलाने का आदेश दे दिया। जलियांवाला बाग चारों तरफ से घिरा हुआ था भागने या जान बचाने का कोई रास्ताा नहीं था। कुछ लोग जान बचाने के लिए मैदान में मौजूद कुएं में कूद गए। देखते ही देखते वह कुआं भी लाशों से पट गया। ऊधम सिंह के जीवन पर इस नरसंहार का गहरा घाव था। तभी उन्होंने डायर से बदला लेने की ठान ली थी।

पहचान छिपाकर पहुंचे थे लंदन

पंजाब के संगरूर जिले के गांव सुनाम में 26 दिसम्बर 1899 को पैदा हुए ऊधम सिंह जलियांवाला बाग हत्या कांड के वक्तं करीब 20 वर्ष के थे। जनरल डायर को जान से मारने के लिए उन्हेंग कई वर्षों का इंतजार करना पड़ा था। वो अपने परिवार में अकेले थे। उनके माता-पिता और भाई पहले ही दुनिया से जा चुके थे। ऐसे में उनके जीवन का केवल एक ही मकसद था, जनरल डायर की मौत। इसके लिए वो नाम बदल-बदल कर पहले दक्षिण अफ्रीका, नैरोबी, ब्राजील और अमेरिका में रहे। वर्ष 1934 में वो पहचान छिपाकर अपना मकसद पूरा करने लंदन पहुंचे और वहां पर उन्होंकने एक कार और रिवॉल्वसर खरीदी। फिर, 13 मार्च, 1940 को एक सभा में हिस्सा ले रहे माइकल ओ डायर की हत्या कर दी। इसके लिए उन्हेंक 21 साल तक इंतजार करना पड़ा था।

शहीद ऊधम सिंह की अंतिम इच्छा शहादत के 34 वर्ष बाद फतेहगढ़ साहिब की धरती पर पूरी हुई थी। शहीद ऊधम सिंह को इंग्लैंड में फांसी दी गई थी। बाद में उनकी अस्थियों का कलश शहीदों की धरती फतेहगढ़ साहिब स्थित रोजा शरीफ में लाकर दफनाया गया था। इतिहासकारों अनुसार उनकी अंतिम इच्छा थी कि उनका शव मुस्लिम समुदाय में मक्का का दूसरा रूप माने जाते रोजा शरीफ में दफनाया जाए। आज इस स्थान पर शहीद स्मारक बनी हुई है। हर साल शहीदी सभा के दौरान यहां आने वाले लोग देश की आजादी में अहम योगदान देने वाले इस महान योद्धा की वीरगाथा से रू-ब-रू होते हैं।

राजकुमार सिंह