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August 18, 2025

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साप्ताहिक अखबार ही बना हिन्दी पत्रकारिता की आधारशिला, आजाद भारत के लोकतन्त्र मे स्वतंत्र रूप से काम कर रहे चौथे स्तम्भ को गिरने कि तैयारी में सरकार?

पत्रकारिता दिवस तो हम सभी आजादी के बाद से ही लगातार मनाते आए हैं। क्या कभी आपने सोचा क्यूँ उस समय भी दैनिक निकालने वाले अन्य भाषाई अखबार जनता के बीच मे अपनी जगह नहीं बना पाये? दैनिक अखबार उस समय भी सरकार के अनुदान से संचालित होते थे और आज भी। पर जो जगह और प्यार क्षेत्रीय साप्ताहिक पत्रकारिता को ही मिला, जिसे किसी तरह का कोई सहयोग सरकार द्वारा नहीं मिला।

कभी आपने सोचा है कि आज से लगभग दो शताब्दी पूर्व ब्रिटिश कालीन भारत, जब तत्कालीन हिंदुस्तान में दूर-दूर तक मात्र अँग्रेजी, फ़ारसी, उर्दू एवं बांग्ला भाषा में अखबार छपते थे, तब देश की राजधानी “कलकत्ता” में “कानपुर” के रहने वाले वकील पण्डित जुगल किशोर शुक्ल जी ने अंग्रेजों की नाक के नीचे हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास की आधारशिला रखी, जिसपर आज आप सभी ने भव्य भवन खड़े किए है। उस आधारशिला का नाम था “उदन्त मार्तण्ड”, जिसने अंग्रेजों की नाक में इस कदर खुजली कर दी की उसका प्रकाशन डेढ़ वर्ष से अधिक न हो सका।

इस साप्ताहिक अख़बार के प्रकाशक एवं संपादक आदरणीय शुक्ल जी ने आज ही के दिन 30 मई 1826 को “उदन्त मार्तण्ड” का पहला अंक प्रकाशित किया था। जिसके परिप्रेक्ष्य में आज का दिन हिन्दी पत्रकारिता का उद्भव कहलाया, और हम आज हिन्दी पत्रकारिता दिवस बनाते है। प्रत्येक मंगलवार को प्रकाशित होने वाले इस साप्ताहिक अखबार में “उदन्त मार्तण्ड” में हिन्दी भाषा के “बृज” और “अवधी” भाषा का मिश्रण होता था। पत्र वितरण में अंग्रेज़ों द्वारा लगातार डाक शुल्क में छूट न दिये जाने के कारण इसका 79वां और आखिरी अंक दिसंबर 1827 में प्रकाशित हुआ। इस समाचार पत्र के पहले अंक की 500 प्रतियाँ प्रकाशित हुयी थी।

“आज ही का शुभ दिन था जब भारत मे पहला हिन्दी अखबार छपा, हिन्दी भाषी लोगों में जब जुगल किशोर का प्यार छपा। हिन्दी के दुर्दिन काल में तब हिन्दी का सूरज दिखायी दिया। पराधीन उस काल खण्ड में जन-जन का उद्गार छपा। तीस मई अट्ठारह सौ छब्बीस हिन्दी का परचम लहराया, “उद्दन्त मार्तण्ड ” नाम का साप्ताहिक अखबार छपवाया। भ्रष्ट, क्रूर, व्यभिचारी, हिंसक अंग्रेजों का जब पहली बार अत्याचार छपा।कोटि-कोटि नमन करता हूँ उस लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ का, उस सत्य के सत्यार्थी का प्रहरी, अन्वेषक आलम्ब का। विचार विनिमय सफल हुआ, स्वतंत्रता का संचार छपा।“

आज के समाज मे पत्रकारिता को लेकर एक आमजनमानस मे धारणा है कि यह एक चकाचौध भरी नौकरी है। बहुत कुछ है इस नौकरी में, नाम भी-पैसा भी और सामाजिक प्रतिष्ठा भी। नेता भी खूब पूछते हैं और अधिकारी भी, और इसी ‘पूछ’ के कारण ‘तमाम काम’ आसानी से हो जाते हैं। सुख-सुविधाओं और साधन-संसाधनों की कोई कमी नही है, कुल मिलाकर एक खूबसूरत जिंदगी। जबकि हकीकत बिल्कुल ही उलट है ।

ये जो ऐशोआराम होते हैं अधिकांश के नसीब में नहीं होते, सुबह से कब रात हुई और कब फिर सुबह, खबरों की दौड़ भाग में पता नहीं लगता। पारिवारिक दायित्वों की संपूर्ण पूर्ति कर पाना एक पत्रकार के लिए किसी चुनौती से कम नहीं, उसके माँ-बाप, बीवी-बच्चों अथवा अन्य परिजनों का जिस समय पर अधिकार होता है, वह समय तो खबरों की खोज में निकलता है। तमाम झंझटों को झेलते हुए खबरों की खोज और फिर ऑडियो-वीडियो अथवा लिखित रूप में उसके प्रस्तुतिकरण में लगा रहता है एक पत्रकार। कितने ही दुश्मन बनाता है , कितनी ही रंजिशें मिलती हैं उसे सौगात में, गाड़ी-बंगला और हाई क्लास लाइफ स्टाइल को तो भूल ही जाईये, पत्रकारों का एक बड़ा वर्ग रोटी-कपड़ा-मकान जैसी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति सुनिश्चित करने को जद्दोजहद करता रहता है। उम्र ढलती जाती है, ज़िम्मेदारियाँ और समस्याएं बढ़ती जाती है और अस्त-व्यस्त जीवनशैली के कारण इस पेशे के संग सौगात के रूप में जुड़ी बीपी-शुगर-हाइपरटेंशन जैसी बीमारियाँ भी। संस्थान शोषण की हद तक काम करवाने के बाद दूध में से मक्खी की भाँति किनारे करने से गुरेज नहीं करते क्योंकि उन्हें कुछ और “सस्ते मज़दूर” आसानी से मिल जाते हैं। बड़ी तादाद में अवैतनिक भी और यह क्रम जारी रहता है। दरअसल समाज में व्याप्त बुराइयों पर प्रहार करने वाला यह चौथा स्तंभ खुद ही शोषण का शिकार है, अधिकारों से वंचित है किंतु इसकी बात सुनने वाला कोई नहीं। सरकारों को फुर्सत नहीं और मालिकों की इच्छा नहीं, नतीजा यह कि ‘अभावों’ की पूर्ति हेतु कुछ ऐसा होता दिखने लगता है जोकि पेशे को कलंकित करता है और पत्रकार व पत्रकारिता पर आरोप लगते हैं। कुछेक बदनीयती से भले ही जुड़े हों इस पेशे से लेकिन आज भी अपना सर्वस्व झोंकने तथा न्यौछावर कर देने वाले भी कम नहीं इस पेशे में।

कोरोना काल पत्रकारों के लिए खतरे की घँटी बजा चुका है, मीडिया संस्थानों में कॉस्ट कटिंग के नाम पर तमाम तिकड़मों के माध्यम से तनख्वाह घटाने और छँटनी का जो दौर शुरू हुआ वह लंबे समय तक असर दिखायेगा। पाठकों की बदलती रुचि, दिनचर्या और लाइफस्टाइल को देखते हुये डिजिटल में बेशक कुछ बेहतर अवसर बनते दिख रहे हैं किंतु सरकारी नियमों-पाबंदियों के साथ अपने ईमानदार प्रयास देने वालों के लिये चुनौतियाँ कम नहीं होंगी।

आज हिंदी पत्रकारिता दिवस के सुअवसर पर सिर्फ ईश्वर से प्रार्थना ही की जा सकती है कि सेवायोजकों को पत्रकारों के हित में सद्प्रेरणा दे। पत्रकार भी इस दुर्गति को अपनी नियति समझना बन्द कर अपने अंदर संघर्ष का माद्दा पैदा करें । पत्रकारों की दशा और दिशा सुधारने की दिशा में केंद्र और राज्य सरकारें भी अकर्मण्यता की राह छोड़ें और पत्रकारों को सख्ती के साथ उनके अधिकार दिलाने के लिए ईमानदाराना कठोर उपाय करें।

आज के समय कि यदि हम बात करें तो पत्रकारिता ख़त्म हो चुकी है। आप अगर इस बात को अपवाद के नाम से नकारना चाहते हैं तो बेशक ऐसा कर सकते हैं। यह बात भी सही है कि कुछ लोग पत्रकारिता कर रहे हैं। काफी अच्छी कर रहे हैं लेकिन आप अपनी जेब से तो पूरे अखबार की कीमत देते हैं न। उस अपवाद वाले पत्रकार को तो अलग से नहीं देते, आज रिपोर्टर नहीं है, एंकर ही एंकर है। हर विषय पर बहस करता हुआ एंकर। जो विशेषज्ञ पहले रिपोर्टर से आराम से बात करता था अब सीधे एंकर के डिबेट में आता है। विशेषज्ञ को पांच मिनट का समय मिलता है जो बोला सो बोला वह भी दिखने से संतुष्ट हो जाता है। उसे पता है कि रिपोर्टर बात करता था तो समय लेकर बात करता था लेकिन एंकर के पास ‘हापडिप’(फोकसबाज़ी) के अलावा किसी और चीज़ के लिए टाइम नहीं होता है। विशेषज्ञ या किसी विषय के स्टेक होल्डर की निर्भरता भी उसी एंकर पर बन जाती है। वह उसी को फोन करेगा।

इस महामारी के सामने भारत की पत्रकारिता फेल हो गई। उसके संस्थानों में एक भी ऐसा नहीं था जो मेडिकल साइंस का जानकार हो और जिसकी विश्वसनीयता हो। जो आई सी एम की गाइडलाइन को चैलेंज करता। जो बताता कि नौ महीने तक गाइडलाइन नहीं बदली गई। जो पूछता कि कोविड का इलाज कर रहे डाक्टरों के साथ इस गाइडलाइन को लेकर किस तरह का संपर्क किया गया है। जो बताता कि इस अस्पताल का डाक्टर इस तरह से इलाज कर लोगों की जान बचा रहा है या उसका रिज़ल्ट बेहतर है। जो मेडिकल जर्नल के रिसर्च को पढ़कर आपके लिए पेश करता। इसमें हमारी तो कमी है ही पत्रकारिता की भी कमी है। विशेषज्ञ के नाम पर जो लोग वैचारिक लेख लिख रहे थे उनमें भी ज़्यादातर बेईमानी थी। वो उपाचर की पद्धति और उसकी कमज़ोरी पर नहीं लिख रहे थे। उसे उजागर नहीं कर रहे थे। अपने लेख में वे पेशे को बचा रहे थे। कुछ बातें तो कह रहे थे लेकिन बहुत बातें नहीं कह रहे थे। अब जैसे मान लीजिए, कि कोई बताता है कि उसके गांव में चार लोगों की मौत टीका लगाने के तुरंत बाद हो गई। ऐसी सूचना को धड़ाक से प्रसारित करने से कई तरह की भ्रांतियां फैल सकती हैं लेकिन क्या इस सूचना को समझने, टीका से होने वाली मौत के बाद की प्रक्रियाओं को समझने की योग्यता है? नहीं है।

“बमुश्किल 3 महीने और फिर आप कुछ भी लिखने में डरेंगे कि कहीं पुलिस तो नहीं उठा ले जायेगी! डर का राज है, डरो, डरते रहो क्योंकि डर ही इस देश की नयी पहचान है। जहाँ परिवार का सदस्य भले मर जाये, भाई-भाई में झगड़ा हो जाये पर कोई ऊँगली न उठाये, बाकी सब कण्ट्रोल में है । सरकार यह भी कह रही है कि नए नियम लेवल प्लेइंग, यानी जो गोदी मीडिया और भक्त बक रहे हैं, वही वह सोशल और डिजिटल मीडिया में भी बरकरार रखना चाहती है। इसके लिए सोशल और डिजिटल मीडिया को शिकायत निवारण तंत्र, अनुपालन अधिकारी और नोडल अफसर रखना होगा। फिर सरकारी बाबू जिस पोस्ट या कंटेंट पर उंगली रख देंगे, उसे 36 घंटे के भीतर हटाना होगा। नग्नता और मॉर्फ्ड फ़ोटो वाले कंटेंट को 24 घंटे में हटाना होगा।“

आज हमारे 130 करोड़ से ज़्यादा के देश में बीजेपी का अराजक राज किस कदर है, इसकी एक बानगी 28 मई को जारी प्रकाश जावड़ेकर का अल्टीमेटम है। सूचना-प्रसारण मंत्री जावड़ेकर ने सभी सोशल मीडिया, डिजिटल न्यूज़ और OTT प्लेटफॉर्म से अगले 15 दिन के भीतर नए IT नियमों का अनुपालन सुनिश्चित करने को कहा है। मज़े की बात यह कि जावड़ेकर ने सरकार के इस कदम का मकसद फेक न्यूज़ को रोकने के लिए बताया है।
भारत का प्रधानमंत्री बीते 7 साल में सैकड़ों बार झूठ बोल चुका है। उसके उन्हीं झूठ को तमाम मंत्री, बाबू और भक्त लाखों बार डिजिटल और सोशल मीडिया में दोहराते हैं। प्रेस कौंसिल, केबल टेलीविज़न नेटवर्क रेगुलेशन एक्ट ऐसे तमाम झूठ, साम्प्रदायिक दुष्प्रचार को चुपचाप आंखें बंद कर देखते रहते हैं। चंद बोलने वाले, झूठ का पर्दाफाश करने वाले और सरकार को आईना दिखाने वाले सोशल मीडिया पर अपनी बात कहते हैं, तो बवाल मचता है। सरकार की नाकामी झलकती है। यानी फेक न्यूज़ वह है, जिसे तथ्य, आंकड़े, प्रमाण सही मानें, लेकिन सरकार नहीं। ग़ज़ब इमरजेंसी है।

मुझे अच्छा लगेगा कि आप इस पोस्ट के बाद पत्रकारिता दिवस की बधाई न दें। दिवसों की बधाई से अब घुटन होने लगी है। राजनीतिक और सामाजिक पहचान के लिए हर दिन एक नया दिवस खोजा रहा है। फ़ोटो में अपना फ़ोटो लगाकर बधाई मैसेज ठेल दिया जाता है। यहाँ लोग नरसंहार को चार दिन में भूल गए और आप किसी का फ़ोटो ठेल कर उम्मीद करते हैं कि महापुरुष जी याद रखे जाएँ। वो भी एक लाइन के बधाई संदेश और फ़ोटो से, है कि नहीं। समय सदा एक जैसा नहीं रहता है वह सदैव परिवर्तनशील है बदलता रहता है। वो दौर भी नहीं रहा, ये दौर भी नहीं रहेगा और फिर नया सवेरा होगा। कल के बेहतर होने की उम्मीद में हम सब दौड़ते जा रहे हैं, जाने कब तक?

राजकुमार सिंह

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Uttarakhand / Dehradun: A heart wrenching incident has come to light from Vikasnagar in Dehradun, the capital of Uttarakhand. Where a young man killed his own mother and fled from the spot. Actually this incident is of 3rd August. Where Herbertpur police got information about a fire in a house in Rambagh area. When the police reached the spot, they found the burnt body of an old woman inside. The owner of the house, Sanjay Singh Rana, identified the body as his wife Suresho Devi alias Vandana Rana. Earlier it seemed that the woman died due to burning in the fire but the investigation revealed the case of murder. In such a situation, today the police has arrested him. Murdered mother when he did not get money for drugs The next day of the incident, the husband of the deceased, Sanjay Singh, while giving a complaint to the police, told that his son Manmohan Singh used to live with his mother. He was addicted to drugs and often used to demand money from his mother. There used to be a lot of quarrel between the two when the mother refused. The father told that Manmohan was missing from home since the incident. After which, he expressed doubt that maybe his son had committed the murder and set the room on fire. The police already suspected the son The police immediately registered a case against the son and started investigation. After which, on the night of 14 August, the police arrested Manmohan Singh from Kulhal area. During interrogation, Manmohan Singh confessed his crime. He told that he has been addicted to drugs for a long time. He has already gone to jail in drug smuggling and Arms Act cases. On the day of the incident, he had asked his mother for money for drugs. But his mother refused to give him money and also did not let him go out of the house. He fled with the money after the murder After which, Manmohan Singh, in anger, attacked his mother’s neck with a wooden stick kept in the house. Due to which she died on the spot. After the murder, Manmohan Singh wrapped the body in a mattress and set it on fire so that it appeared that the woman died due to burning. Manmohan fled on a motorcycle with 30 thousand rupees kept in the cupboard of the house and his clothes.