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“ज्ञान दीप”

वर्ष 2017 में जब शिक्षा मंत्री अरविंद पाण्डेय थे तो अरविंद पाण्डेय ने उत्तराखण्ड में NCETR पाठ्यक्रम अनिवार्य कर दिया। इस का अनेकों शिक्षक संगठनों ने विरोध किया तो वहीं गरीब अभिभावकों ने इस निर्णय का स्वागत किया था। त्रिवेंद्र रावत सरकार ने आईसीएससी बोर्ड को छोड़कर शेष सभी स्कूलों में एनसीईआरटी की किताबें अनिवार्य रूप से लागू करने का फैसला लिया है। इस का मकसद गरीब छात्र-छात्राओं को सस्ती किताबें मिल सकेगी। शिक्षा के स्तर में सुधार होना। निजी स्कूलों व सरकारी स्कूलों के बच्चों के मध्य प्रतिस्पर्धा समान रखना। शिक्षा का बाजारीकरण कम करना। निजी स्कूलों की मनमानी रोकना व कागज के खपत को कम करना सरकार ने माध्यमिक स्कूलों में राज्य के इतिहास, भूगोल और संस्कृति से जुड़े विषयों को जोड़ते हुए एक किताब भी शामिल करने का निर्णय लिया है। छात्र-छात्राओं को राज्य से जुड़े महत्वपूर्ण जानकारी हासिल हो सके, इस लिहाज से यह कदम उठाया गया।माध्यमिक स्कूलों में अभी तक आठवीं तक ही एससी-एसटी के छात्र-छात्राओं को निशुल्क पुस्तकें मिला करती था। अब 12 कक्ष के छात्र-छात्राओं को इसका लाभ देने के लिहाज से यह कदम महत्वपूर्ण रहा।

वर्ष आधा निकल चुका था दुगड्डा,जयहरीखाल, रिखणीखाल, नैनीडांडा के 66 स्कूल ऐसे थे जहां पाठ्यक्रम नही पहुचा था। जब मैंने सोशलमीडिया व प्रिंट मीडिया के माध्यम से दुगड्डा ब्लॉक की बात उठाई तो अन्य ब्लॉक के स्कूलों की बात सामने आई और 13 दिन बाद सभी स्कूलों को पाठ्यक्रम पहुच गया था तब तक 7 महीने निकल चुके थे। HNN व हिमलाय न्यूज ने इस पर अनेकों डिबेट भी चलाई जिस का असर यह हुआ कि शिक्षा मंत्री को प्रेस वार्ता कर के सफाई देनी पड़ी। वर्ष 2018 में मैंने उत्तराखण्ड शिक्षा विभाग से एक सूचना मांगी जिस में मैंने सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले एक कक्षा 1 से 5 बच्चे पर किया जाने वाला खर्च मांगा शिक्षा विभाग ने 21 दिन बाद जवाब दिया कक्षा 1 से 5 तक पढ़ने वाले बच्चे पर प्रति महीना सरकार 9810₹ (नो हजार आठ सौ दस) खर्च करती हैं। जब मैंने कक्षा 6 से 10 वीं कक्षा के बच्चों पर किया जाने वाला मासिक व्यय मांगा तो वह 10900₹ (दस हजार नो सौ) था। और कक्षा 10 से 12 वीं तल के एक बच्चे पर सरकार वर्ष 2018 में 12891₹ ( बारह हजार आठ सौ इक्यानवे) खर्च करती हैं। शिक्षा राज्य पर सब से बड़ा बोझ बन गया था। राज्य में सब से अधिक कर्मचारी शिक्षा विभाग में कार्यरत थे। वर्ष 2019 तक राज्य की GDP का 12% सिर्फ शिक्षा पर खर्च होता था। राज्य की 23% शिक्षा विभाग के भवनों की स्थिति जीर्णशीर्ण हो चुकी हैं। राज्य शिक्षा के बोझ तले दबा हुआ है बावजूद इस के शिक्षा में कोई सुधार होता नही दिख रहा। आज सरकार ने निर्णय लिया कि शिक्षा विभाग के 123 दफ्तर बंद किया जाएंगे। जिन कार्यालयों के बोझ सरकार नही झेल सकती उन्हें बंद किया जाएगा यह फैसला कितना नही कितना गलत हैं यह भविष्य ही बताएगा किंतु आज शिक्षा के गिरते स्तर को उठाने के लिए मजबूर कदम उठाने होंगे। यदि शिक्षा की गुणवत्ता सुधारनी हैं तो कठोर निर्णय लेना बहुत जरूरी हैं।

यह आंकड़े चौकाने वाले थे देहरादून को शिक्षा का केन्द्र माना जाता था और वहाँ सन्त कवीर स्कूल,दीवान पब्लिक स्कूल,मार्सल स्कूल,ज़ी इंटरनेशनल, सेंट जोसफ स्कूल जैसे अनेकों नामी स्कूलों इतनी फीस कहीं नही थी। जहां बच्चों को काविल बनाने की गारंटी देते है वहां भी इस से कम फीस थी। माना शिक्षा सरकार की आय का साधन नही हैं शिक्षा मौलिक अधिकार की सूची में आता हैं किंतु उस की गुणवत्ता पर ध्यान भी दिया जाना चाहिए। सरकार प्रतिवर्ष बच्चों के भविष्य पर लाखों पैसा लगाती हैं बावजूद इस के सरकारी स्कूल चौपट हैं इस में कमी किस की हैं सरकारी तंत्र या कर्मचारियों या अभिभावकों की। हो सकता हैं सभी का दोष हो किंतु कोई एक तो ऐसा हैं जिस का दोष प्रतिशत अन्य से अधिक हैं। निजी स्कूल सरकारी स्कूलों की विफलता का जिताजागता उदहारण हैं। अकेले अध्यापकों को दोष दिया जाता हैं जब कि ऐसा नही हैं अध्यापक कठपुतली बन गए हैं। नचाने वाले मदारियों ने कभी खुद के शिक्षा का स्तर नही जाना। उन की मानसिकता निम्न दर्जे की जो ठैरी। शिक्षकों को शादी का घोड़ा बना दिया हैं उस की बला से दूल्हा काला हैं या गोरा। जब पैरों के सामने पटाखे फटेंगे तब ही शादी का घोड़ा उछाल मारता हैं। वरना चारा समय पर मिल जाये यही बहुत हैं। शिक्षा की गुणवत्ता में अध्यापक, अध्यापन,अध्याय,अध्ययन का समावेश होना अतिआवश्यक हैं करना शिक्षा का स्तर निजी हो या सरकार कभी नही सुधर सकता हैं। शिक्षा समाज की जरूरत ही नही नीव भी हैं। जितनी जरूरत आज नैतिक शिक्षा की हैं उतनी आवश्यकता किताबी शिक्षा की भी हैं। शिक्षा व ज्ञान के अभाव में समाज विकृति बन रहा हैं। अब कुछ बदलाव की जरूरत हैं।

देवेश आदमी