हवाई मार्ग से आपदा का जायजा, कहीं हवाई न होने पाये हुजूर..
उत्तराखंड में आई आपदा का जायजा लेने गृह मंत्री अमित शाह उत्तराखंड दौरे पर कल मध्यरात्रि प्रदेश मुख्यालय पहुँच चुके हैं। बताया जा रहा है रात्रि विश्राम के बाद उनका गुरुवार को प्रभावित क्षेत्रों में जायजा लेने का कार्यक्रम है। इस दौरे को देखते हुए आपदा प्रबंधन विभाग तैयारियों में जुट गया है। जो पिछले दिनों कुछ कम ही नजर आ रहा था। इस बीच सीएम पुष्कर सिंह धामी लगातार कुमांऊ के प्रभावित क्षेत्रों में बने हुए हैं। उनकी टीम की गाड़िया भी इस आपदा में बहती नजर आई पर उसे बचाने वाले लोग ग्रामीण थे आपदा विभाग के नही। बचाव और राहत अभियान में एसडीआरएफ के साथ ही एनडीआरएफ की टीमें भी लगी हुई हैं। राज्य आपदा कंट्रोल रूम के अनुसार तीन दिन की आपदा के बाद अब तक कुल 46 लोगों की मौत हो चुकी है, जबकि 11 अब भी लापता चल रहे हैं।
बड़ी बात तो यह है कि जब सरकार इस आपदा की घड़ी में यदि इंटरनेट बंद कर दे तो कैसे आँकड़े सामने आ पायेंगे, यह महत्वपूर्ण विषय है। इन्टरनेट सेवा चरमराने का कारण कहीं आपदा में सरकार अपनी नाकामी छुपाने के लिए तो नही। वर्ना तो 2013 की आपदा इससे भी भयंकर थी तब ये सब नही हुआ। अब सरकार अपनी ही जनता से क्या छुपाने जा रही है आप स्वयं अंदाज़ा लगाइये।
प्रदेश में चुनावी समर आने को है तो सोचिए इस आपदा में प्रदेश की जनता कहाँ खड़ी है ? कौन सहयोग को आगे आ रहा है ? जहां चुनाव में बड़े-बड़े लोकलुभावने हवाई वादे किये जाते हैं ठीक वैसे ही हमारे ग्रहमंत्री महोदय आपदा का हवाई सर्वेक्षण करने जा रहे हैं। हवाई तो हवाई होता है शाहब, इस धरा पर उतरकर वहाँ के प्रभावितों के बीच जाकर उनके ज़ख्मों को देखिए। जिन्हें हर आपदा में सरकारें (चाहें किसी भी राजनीतिक पार्टी की हों) आश्वासन के आलावा कुछ और दे नही पाती है। देश व प्रदेश में आपकी ही सरकारें हैं और उत्तराखंड आपदा में पहली बार देश के ग्रहमंत्री का सर्वेक्षण होने जा रहा है। कुछ बड़ी उम्मीदें आपसे की जा सकती हैं। अब देखने वाली बात यह होगी की इस पूरे दौरे के बाद क्या निकलकर सामने आता है। प्रदेश की जनता ग्रहमंत्री से उम्मीद करती है हवाई मार्ग से आपदा का यह जायजा, चुनावी वादों की तरह ही कहीं हवाई साबित न होने पाये।
देश की जनता को यदि याद हो तो ये वही हैं जिन्होंने प्रधानसेवक के पन्द्रह-पन्द्रह लाख खातों में आयेंगे वाले बयान को चुनावी जुमला बताया था। जो सच निकला, जिसपर सवाल करना मतलब देशद्रोह। अब देवभूमि में आये हैं आपदा में मरहम लगाने वो भी आधि रात को, अब किसे क्या मरहम लगेगा ये तो आगे आने वाला समय बतायेगा। परन्तु जिस तरह से हमारे प्रदेश के वर्तमान, पूर्व व शीर्ष नेतृत्व पंक्तिबद्ध खड़ा है इससे कुछ और ही अन्देशा हो रहा है। कहीं प्रदेश में राजनीतिक उठापटक तेज तो होने को नही है ? समय से पहले चुनाव की सम्भावना भी हो सकती है। सबसे बड़ा तो आपदा के बहाने पार्टी के डैमेज-कण्ट्रोल को नियंत्रित करना है। जिसके चलते कहा जा सकता है कि कोई दल-बदल की बड़ी घटना प्रदेश को दुबारा देखने को न मिले। जिसका दंश एक बार प्रदेश झेल चुका है।
बारिश को रोका नहीं जा सकता, न ही किसी और प्राकृतिक आपदा पर इंसान का वश है। लेकिन कम से कम एहतियाती उपाय तो किए ही जा सकते हैं। अंतरिक्ष विज्ञान में भारत ने बहुत तरक्की की है और आकाश से लेकर धरती पर निगरानी रख सकें, ऐसे कई उपग्रह अंतरिक्ष की कक्षाओं में पहुंचाए जा सके हैं। मौसम का पूर्वानुमान या भविष्यवाणी करने के लिए मौसम विभाग है। फिर भी लोगों को बाढ़ की विभीषिका क्यों झेलनी पड़ती है, ये सवाल सरकार से किया जाना चाहिए। तीन ओर से समुद्र से घिरे भारत औऱ सबसे ऊपर हिमालय की चोटियों के कारण देश की तस्वीर जितनी मनोहारी बनती है, सरकार की लापरवाही और विकास की अंधाधुंध दौड़ के कारण इस तस्वीर पर उतने ही दाग लगते जा रहे हैं। मौसम चक्र परिवर्तन के कारण बारिश का कहर किसी भी समय देश पर टूटने लगा है। ख़ास तौर पर समुद्रतटीय इलाकों और पहाड़ी इलाकों में आम लोगों के लिए मौसम परिवर्तन एक बड़ा ख़तरा बन चुका है। लेकिन इस ख़तरे को टालने की ओर सरकार का कोई ध्यान नहीं है।
उत्तराखंड में बारिश, बादल फटना, भूस्खलन जैसी घटनाओं ने कुमाऊं के इलाके में भारी तबाही मचाई है। कुमाऊं क्षेत्र में बीते 124 सालों में अब तक की सबसे ज़्यादा बारिश रिकार्ड की गई है। बारिश और भूस्खलन से होने वाली तबाही में कुल 47 लोग अब तक जान गंवा चुके हैं। कोसी, गौला, रामगंगा, महाकाली के साथ ही इलाक़े की सभी नदियां और जल धाराएं उफ़ान पर हैं और सैकड़ों भूस्खलनों के चलते कई मकान ज़मींदोज़ हो गए हैं और अधिकतर सड़कें बाधित हैं। बचाव और राहत कार्य में लगे जवान केरल से लेकर उत्तराखंड तक दिलेरी के साथ लोगों की जान बचाने में लगे हुए हैं।
पर्यटन के लिए मशहूर नैनीताल में नैनी झील में जलस्तर बढ़ने के कारण तबाही मची हुई है। सड़कें, दुकानें, होटल सब पानी में डूबे हुए हैं। पर्यावरणविद् और इतिहासकार शेखर पाठक के मुताबिक ‘नैनीताल झील के ज्ञात इतिहास में अब तक ऐसा ओवरफ़्लो नहीं देखा गया है। एक तो अभूतपूर्व बरसात इसका कारण रही है, दूसरी वजह यह रही कि लेक ब्रिज में बनाया गया पानी का पैसेज भी नासमझी के साथ बनाया गया है। उसे और बड़ा बनाया जाना था। बरसात के चलते झील में पानी लाने वाले सारे ही नालों से इतना पानी आया कि उस रफ़्तार के साथ उसकी निकासी नहीं हो पाई और तल्लीताल के इलाक़े में बाढ़ आ गई।’
इससे पहले जब उत्तराखंड के केदारनाथ में तबाही मची थी, तब भी नासमझी से लिए गए फ़ैसले ही लोगों पर जानलेवा साबित हुए थे। उत्तराखंड के पहाड़ कमज़ोर हैं और भारी बरसात में यहां भूस्खलन का खतरा हमेशा मंडराता रहता है। लेकिन विकास के नाम पर इस सूबे के जंगलों और पहाड़ों से खिलवाड़ थम ही नहीं रहा है। यहां की जमीन जितना दबाव सहन नहीं कर सकती, उससे कहीं ज्यादा विकास का बोझ यहां लाद दिया गया है, जो अंतत: विनाश का कारण बन रहा है।