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संगठित और संकल्पित किसानों ने दिखाया कि कारपोरेट और सत्ता के षड्यंत्रों से कैसे लड़ा जाता है

आंदोलन में अगर चरित्र बल हो और आंदोलनकारियों को धैर्य का साथ हो तो शक्तिशाली सरकारें भी उनके समक्ष घुटने टेक सकती हैं। किसान बिल की वापसी की प्रधानमंत्री की घोषणा ने इसे एक बार फिर से साबित किया है।

अपने कदम पीछे खींचने के इस फैसले तक पहुंचना सरकार के लिये आसान नहीं रहा होगा। सब जानते हैं कि कृषि क्षेत्र में तथाकथित ‘सुधार’ के लिये सरकार पर ‘कारपोरेट वर्ल्ड’ का कितना दबाव था। दुनिया मुट्ठी में कर लेने के इसी अति आत्मविश्वास का नतीजा था कि एक बड़े कारपोरेट घरानो द्वारा कृषि कानूनों की औपचारिक घोषणा के पहले ही बड़े पैमाने पर अन्न संग्रहण की तैयारियां की जाने लगी थीं। आनन-फानन में तैयार किये गए इन विशालकाय अनाज गोदामों के न जाने कितने विजुअल्स विभिन्न न्यूज चैनलों पर आ चुके थे जो इस तथ्य की तस्दीक करते थे कि देश की कृषि संरचना पर काबिज होने के लिये बड़े कारपोरेट घराने कितने आतुर हैं।

दरअसल, किसानों के आंदोलन ने जिस द्वंद्व की शुरुआत की थी उसमें प्रत्यक्षतः तो सामने सरकार थी लेकिन परोक्ष में कारपोरेट शक्तियां भी थीं। इस मायने में, कृषि बिल की वापसी को हम हाल के वर्षों में हावी होती गई कारपोरेट संस्कृति की एक बड़ी पराजय के रूप में भी देख सकते हैं।

यह बाजार की शक्तियों की बेलगाम चाहतों पर संगठित प्रतिरोध की विजय का भी क्षण है जिसके दूरगामी प्रभाव अवश्यम्भावी हैं, क्योंकि यह एक नजीर है उन श्रमिक संगठनों के लिये जो प्रतिरोध की भाषा तो बोलते हैं लेकिन किसानों की तरह कारपोरेट की मंशा के सामने चट्टान की तरह अड़ने का साहस और धैर्य नहीं दिखा पा रहे।

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न जाने कितने आरोप लगाए गए कि सड़कों पर डेरा जमाए इन किसानों को विदेशी फंडिंग हो रही है, कि इनमें खालिस्तानी भी छुपे हुए हैं, कि ये देश के विकास में बाधक बन कर खड़े हो गए हैं और कि ये तो कुछ खास इलाकों के संपन्न किसानों का ऐसा आंदोलन है जिसे देश के अधिसंख्य किसानों का समर्थन हासिल नहीं है। आंदोलन को जनता की नजरों से गिराने की कितनी कोशिशें हुईं, यह भी सब जानते हैं। कितने न्यूज चैनलों ने इसे बदनाम कर देने की जैसे सुपारी ले ली थी, यह भी सबने देखा।

संगठित और संकल्पित किसानों ने उदाहरण प्रस्तुत किया कि नए दौर में नव औपनिवेशिक शक्तियों से अपने हितों की, अपनी भावी पीढ़ियों के भविष्य की रक्षा के लिये कैसे जूझा जाता है। उन्हें पता था कि अगर कारपोरेट और सत्ता के षड्यंत्रों का जोरदार विरोध न किया गया तो उनकी भावी पीढियां आर्थिक रूप से गुलाम हो जाएंगी।

जब किसी आंदोलित समूह के लक्ष्य स्पष्ट हों और उनके साथ उनका सामूहिक चरित्र बल हो तो सत्ता को अपने कदम पीछे खींचने ही पड़ते हैं। खास कर ऐसी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में, जिनमें वोटों के खोने का डर किसी भी सत्तासीन राजनीतिक दल के मन में सिहरन पैदा कर देता है।

किसानों ने सरकार के मन मे इस डर को पैदा करने में सफलता हासिल की कि वह अगर आंदोलन के सामने नहीं झुकी तो इसका चुनावी खामियाजा भुगतना पड़ सकता है।

निजीकरण की आंच में सुलग रहे सार्वजनिक क्षेत्र के आंदोलित कर्मचारी सरकार के मन में यह डर पैदा नहीं कर सके। सत्तासीन समूह और उसके पैरोकार कारपोरेट घराने इन कर्मचारियों के पाखंड को समझते हैं। वे जानते हैं कि दिन में सड़कों पर मुर्दाबाद के नारे लगाते ये बाबू लोग शाम के बाद अपने-अपने ड्राइंग रूम्स में सत्ता के प्रपंचों को हवा देने वाले व्हाट्सएप मैसेजेज और न्यूज चैनलों में ही रमेंगे।   

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इस सवाल को दोहराने वालों में अग्रणी रहने वाले ये कर्मचारी अपने आंदोलनों से किसी भी तरह का चुनावी डर सत्तासीन राजनीतिक शक्तियों के मन में नहीं जगा पाए।

आप इसे राजनीतिक फलक पर शहरी मध्य वर्ग के उस चारित्रिक पतन से जोड़ सकते हैं जो उन्हें तो उनके हितों से महरूम कर ही रहा है, उनकी भावी पीढ़ियों की ज़िन्दगियों को दुश्वार करने की भी पृष्ठभूमि तैयार कर रहा है।

कृषि बिल की वापसी की घोषणा करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि वे आंदोलित किसानों को समझा नहीं पाए। वे सही ही कह रहे थे। जब अपने आर्थिक-सामाजिक हितों को लेकर किसी समूह की राजनीतिक दृष्टि साफ होने लगे तो उसे प्रपंचों और प्रचारों से समझा पाना किसी भी सत्तासीन जमात के लिये आसान नहीं होता।

हालांकि, वे सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारियों को भी समझा नहीं पा रहे कि उनके संस्थानों के निजीकरण के बाद भी उनके हितों की सुरक्षा होगी। लेकिन, तब भी, वे इस समूह की राजनीतिक प्राथमिकताओं के प्रति फिलहाल तो आश्वस्त ही हैं। तभी तो, तमाम विरोध प्रदर्शनों के बावजूद अंधाधुंध निजीकरण का अभियान जोर-शोर से जारी है।

किसान आंदोलन की यह जीत कारपोरेट की सर्वग्रासी प्रवृत्तियों के खिलाफ किसी सामाजिक-आर्थिक समूह की ऐसी ऐतिहासिक उपलब्धि हैजो अन्य समूहों को भी प्रेरणा देगी…कि घनघोर अंधेरों में भी अपनी संकल्प शक्ति और साफ राजनीतिक दृष्टि के सहारे उजालों की उम्मीद जगाई जा सकती है। यह शक्तिशाली बाजार के समक्ष उस मनुष्यता की भी जीत है जिसे कमजोर करने की तमाम कोशिशें बीते तीन-चार दशकों से की जाती रही हैं।

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बाजार और मनुष्य के बीच का द्वंद्व आज के दौर की सबसे महत्वपूर्ण परिघटना है। उम्मीद कर सकते हैं कि बाजार की यह पराजय मनुष्यता के विचारों को मजबूती देगी।

राजकुमार सिंह परिहार