News Cubic Studio

Truth and Reality

सिमटते जोत जिम्मेदारी किस की….?

० सरकारों का शहरीकरण पर अधिक ध्यान पहाड़ी नगरों को कूड़े के ढेर में तब्दील कर रहे हैं
० सिमटते जोत का मुख्य कारण पहाड़ों के लिए बनी योजनाओं के कार्यालय मुख्यालय शहरों में होना हैं
० उत्तराखंड जिस अंतिम व्यक्ति के लिए योजनाएं बनती हैं उस तक योजना योजन दूर रहता हैं
० हम ने सीख नही लिया सिर्फ केंद्र की सरकारों से भीख लिया हैं। पहाड़ अपने अस्तित्व से ही नेतृत्व विहीन रहा

सिमटते जोत की जिम्मेदारी किस की है इस विषय पर अनेकों तर्क है। जनता जनप्रतिनिधियों को दोषी मानती हैं और नीतिनिर्माताओं के जुबान पर जनता दोषी हैं। गाँव का वनक्षेत्र में तब्दील होना चिंता का विषय हैं ग्रामीण क्षेत्रों का भूतिया होना शहरों पर अनैच्छिक दबाव बढ़ा रहा हैं जिस कारण अपराध भुखमरी बेरोजगारी कुपोषण निरक्षरता जैसे भयानक मर्ज निकल कर सामने आरहे हैं। यह सिर्फ उत्तराखंड के लिए ही नही सभी 9 हिमालयन राज्यों के विषय में लिख रहा हूँ। पहाड़ों में लगातार नगर बन रहे है और वह नगर पहाड़ों को खतरे में डाल रहे हैं। पहाड़ी नगरों की पैदावार लगातर हो रही हैं जिस से जगह-जगह कूड़े के पहाड़ों के निर्माण हुआ हैं उन पहाड़ी नगरों में जलसंकट व दूषित पानी की निकशी सब से बिकट समस्या बन रही हैं। पहाड़ी नगरों में कूड़े को रिसाइकिल करने का कोई प्रबंध नही हैं नॉर्थईस्ट में कुछ-एक नगरों में सरकारों ने कूड़ा प्रबंधन का कार्य किया हैं किंतु अभी स्तर बहुत नीचे हैं।

उत्तराखण्ड के पहाड़ों से जन रिसाव के अनेकों कारण है जिन में रोजगारी, शिक्षा,चिकित्सा, मूलभूत सुविधाओं का न होना मुख्य कारण हैं। पहाड़ सदियों से नेतृत्व बिहीन रहा। पहाड़ों में जननायकों का टोटा बना हुआ हैं कोई दूरदर्शी जननायक पैदा नही हुआ जो पहाड़ों को समझे व पहाड़ियों को समझाएं उत्तराखंड में नेतृत्व की भारी किल्लत बनी हुई हैं जिस कारण जन रिसाव हो रहा हैं। जिस कारण विकासखण्ड विकास की दौड़ में पिछड़ रहे हैं। यह विगत 25 वर्षों में सूनामी की तरह आया और 20 वर्षों में तो इस ने बहुत तेजी पकड़ी है। कितुं अन्य 8 हिमालयन राज्यों की हम बात करें तो वहाँ पलायन के कुछ अन्य कारण हैं उत्तराखंड से अधिक पलायन हिमाचल नागालैंड असम मणिपुर J&K में हुआ हैं। किन्तु जम्मू कश्मीर को छोड़ यदि हम अन्य 7 राज्यों की बात करें तो वहां जनमानुष ने शिक्षा चिकित्सा रोजगार या मूलभूत सुविधाओं के लिए पलायन नही किया वहाँ के ग्रामीणों ने मानव प्रवृत्ति के अनुसार पलायन किया हैं। उत्तराखंड से पलायन करने वाले पहले वे लोग थे जो आर्थिक सामाजिक बैचारिक रूप से सम्पन्न थे जो शिक्षित थे जो सक्षम थे उन्होंने सब से पहले गाँव छोड़े। मगर जम्मू कश्मीर के अलावा अन्य 7 हिमालयन राज्यों में ठीक इस का उल्टा हुआ वहां कमजोर वर्ग अशिक्षित लोगों ने गांव छोड़े जिन के पास आजीविका हेतु पर्याप्त जमीन नही थी जिन का गुजरबसर गाँव की भूमि से नही हुआ उन लोगों ने गाँव छोड़ा।

See also  The big question is why is the corporate class silent on the damage to the social fabric and the growing communalism?

आज उत्तराखंड में जितने भी घर बिरान हुए उन सभी घरों के शहरों में आलिशान महल बनाकर रहते हैं। कुछ लौट रहे है गाँव पर मुट्ठीभर से इतना फर्क नही पड़ता। यदि राजनीति दृष्टिकोण से हम उत्तराखंड के पलायन को देखें तो सरकारों ने (किसी भी पार्टी की सरकार हो) पहाड़ों को प्रयोगशाला से अधिक कुछ नही बनाया हैं। योजनाएं जब पहाड़ी जिलों के लिए हैं तो मुख्यालय शहर में क्यों। कृषि विद्यालय कृषि अनुसंधान केन्द्र कृषि मण्डी उद्यान विभाग पेयजल विभाग महाविद्यालय पशुपालन विभाग मत्सय विभाग आदि इत्यादि शहरों में ओर पहाड़ सिर्फ कागजों में विकसित हो रहा हैं। यदि कार्यालय शहरों में होगा तो ग्रामीण कहाँ गुहार लगाएगा कहाँ ग्रामीणों की शिकायतें शहरों तक पहुँचेगी। 22 वर्षों में राजधानी तय नही हो रही तो पहाड़ों के विकास कैसे होगा। वर्तमान पलायन अनैच्छिक हैं। पलायन किये 70% आवादी आज भी वापस आना चाहती हैं। किंतु वापस आने की वजह नही मिल रहा हैं वापस आने का कोई जरिया नही बन रहा हैं। करोना महामारी ने पलायन किये गरीब वर्ग की कमर बहुत बुरी तरह से तोड़ी हैं किंतु किसी के पास मणि नही जो अपना भविष्य पहाड़ों में स्थापित कर सकें। महामारी के बाद गॉंव में कुछ नए घर बन रहे है कुछ पुराने घरों का जीर्णोद्धार हुआ हैं यह वे लोग है जो आर्थिक रूप से संपन्न है उन्हीं लोगों ने गांव में घर बनाये अपने रहने का ठिकाना बदला जिन के पास पैसों की कोई कमी नही है यह वर्ग सेवानिवृत्त लोगों का अधिक हैं। किंतु हमें इंतजार उस वर्ग का है जो शहरों पर बोझ है जो गांव लौटा तो खेत जोतेगा जो गांव लौटा तो हरियाली लाएगा।

See also  STAY SANITIZED AND HAVE LONG LIFE

सिमटते जोत के मुख्य कारण गरीब अन्न योजना व मनरेगा के घटिया नियम भी हैं जिन खेतों में जैविक अन्न उत्त्पादन होता था वहां खंती व खालचाल के सिवाय कुछ नही है यदि खेल अवाद होते तो खालचाल की आवश्यकता नही होती भूजलस्तर में बढ़ोतरी के लिए जोत जोतने होंगे। गड्ढे कब तक खोदे जाएंगे सिर्फ गड्ढे ही हाथ आएंगे। गड्ढे खोदने का कोई भविष्य नही हैं। पहाड़ों व पहाड़ी को यदि बचना हैं तो मुख्य स्रोत खेती हैं तभी पहाड़ी व पहाड़ बच सकता हैं अन्यथा एक था पहाड़ी

देवेश आदमी