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कांग्रेस का पतन-:सामाजिक न्याय की राजनीति, ब्रांड की चूक और भाजपा/आरएसएस का धार्मिक वैचारिक जाल….

देवेश आदमी

2014 से पूर्व कांग्रेस पार्टी की सबसे बड़ी खूबी या कहें ऐतिहासिक भूल यह रही कि उसने “ब्रांड” पर नहीं, बल्कि “समाज” पर काम किया। कांग्रेस ने यह मानकर राजनीति की कि यदि जनता को अधिकार, शिक्षा और जानकारी दी जाए तो लोकतंत्र स्वतः मजबूत होगा। इसी सोच से शिक्षा का अधिकार कानून आया, क्योंकि शिक्षित नागरिक ही विकसित समाज की नींव होता है। इसी क्रम में सूचना का अधिकार (RTI) लागू किया गया, ताकि जनता सरकार से सवाल पूछे विपक्ष से नहीं, सीधे सत्ता से। यह लोकतंत्र की परिपक्वता का संकेत था, लेकिन यही परिपक्वता कांग्रेस के लिए राजनीतिक आत्मघात बन गई। कांग्रेस ने सदैव अल्पसंख्यक समाज के हितों की बात रखी जिस में सिर्फ मुस्लिम नहीं रहा अनेकों अन्य धर्म के लोग भी हैं मगर बहुसंख्यक को केंद्र में रखा।

RTI के माध्यम से जनता ने सवाल पूछे और सरकार ने जवाब दिए। इसी प्रक्रिया में स्टाम्प पेपर घोटाला, 2G, कोयला, CWG, लावासा, ताबूत सौदा, बोफोर्स और अगस्ता हेलीकॉप्टर जैसे मामलों की परतें खुलीं। ए. राजा, कनिमोझी, सुरेश कलमाड़ी जैसे नेता जेल गए। टेलिकॉम घोटाला कोल घोटाला में मनमोहन सिंह से सीधे सवाल हुए। पी जिंदम्बर्म की जांच हुई। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि कांग्रेस ने अपने ही नेताओं पर कार्रवाई की, जांच एजेंसियों को खुली छूट दी और कभी भी RTI कानून को कमजोर करने का प्रयास नहीं किया, बल्कि उसे और प्रभावी बनाया। देश में EVM लेकर आई कंप्यूटर तकनीक नव भारत नव ऊर्जा का विस्तार किया ताकि देश तरक्की करे। कांग्रेस ने जितनों के खिलाप कार्यवाही किया बाद में अनेक मामलों में अदालतों ने कोई ठोस भ्रष्टाचार नहीं पाया, लेकिन तब तक राजनीतिक नैरेटिव बन चुका था और कांग्रेस हार चुकी थी। कांग्रेस का प्रचार विपक्षी पार्टी चोर भरस्टाचार पार्टी के रूप में कर चुकी थी।

यहीं से कांग्रेस के पतन की असली कहानी शुरू होती है। कांग्रेस जनता की सुनती रही, लेकिन जनता की मनःस्थिति को पढ़ नहीं सकी। उसने यह मान लिया कि कल्याणकारी योजनाएँ ही राजनीति की जीत का आधार होंगी। जबकि राजनीति केवल नीति से नहीं, प्रस्तुति से भी चलती है। कांग्रेस ने कभी अपने कार्यों को एक सशक्त “ब्रांड” में नहीं बदला। इसके उलट भाजपा ने नरेंद्र मोदी को एक सर्वशक्तिमान ब्रांड के रूप में गढ़ा जहाँ सरकार, पार्टी और व्यक्ति एक ही छवि में समाहित हो गए।

इतिहास देखें तो कांग्रेस लगातार अपने राजनीतिक पैटर्न बदलती रही। स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में लगभग 20 वर्षों में पैटर्न बदला गया। आज़ादी के बाद 1973 तक हर 10 वर्षों में और उसके बाद हर 5 वर्षों में रणनीति बदली गई। लेकिन 2000 से 2014 के बीच कांग्रेस ने अपना पैटर्न लगभग स्थिर रखा। शायद उसे लगने लगा था कि उसे कोई हरा नहीं सकता, या जनता उसकी योजनाओं से संतुष्ट है। यही आत्मसंतोष उसकी सबसे बड़ी भूल बना। कांग्रेस ने हर बड़ी घटना के बाद लगातार अपनी शैली को बदला चाहे किसी बड़े नेता की मौत हो हत्या हो या देश में लोकसभा चुनाव मगर वर्ष 2000 के बाद कांग्रेस निश्चिन्त होकर सौ गई आने वाले तूफ़ान को इग्नोर कर दिया।

राहुल गांधी उस देश से पढ़कर आए थे जहाँ राजनीतिक ब्रांडिंग, नैरेटिव और जन-संवाद पहले से विकसित थे। उनके पास शिक्षित, अनुभवी सलाहकारों की टीम थी। फिर भी कांग्रेस यह नहीं भांप सकी कि भारत में श्रम और रोज़गार से पहले धर्म सबसे बड़ा राजनीतिक मुद्दा बनने वाला है। भाजपा/आरएसएस ने यह खाली जगह बहुत पहले पहचान ली थी। उन्होंने धर्म को केवल आस्था नहीं, बल्कि स्थायी राजनीतिक एजेंडा बना दिया। कांग्रेस विकास, रोजगार और सामाजिक न्याय की बात करती रही, जबकि भाजपा पहचान, भय और भावनाओं की राजनीति में उतर गई। कांग्रेस ने पूँजीपति से संतुलन बनाकर नहीं रखा सामाजिक न्याय पर अधिक भरोसा किया बाजारवाद के केंद्र में जनता को रखा। कांग्रेस में बड़े नेताओं को इस बात का डर लगा कि वे कभी भी जेल जा सकते हैं इस लिए उन्होंने कांग्रेस में होते हुए बीजेपी का साथ दिया और कांग्रेस को धोखा दिया और बीजेपी सरकार आते ही सब बीजेपी में शामिल हो गए। उन का डर जायज था कि जब पार्टी हम को नहीं छोड़ रही तो पार्टी में रह कर क्या करना और बीजेपी में जाते ही सब के पाप धुल गए इसी लिए बीजेपी को वाशिंग मशीन भी कहा जाता हैं।

भाजपा/आरएसएस का पैटर्न दीर्घकालिक, वैचारिक और अनुशासित है। उस ने धीमी आंच पर धर्म की राजनीति को पकने दिया इंतजार किया कि कब जनता खुद बगावत करे और उस में कूद गई। एक ओर संघ जमीनी स्तर पर विचारधारा गढ़ता है, दूसरी ओर भाजपा चुनावी राजनीति में उसे भुनाती है। कांग्रेस की नाव में आखरी छेद दिल्ली की शीला दीक्षित सरकार के पतन के रूप में हुआ जिस में अन्ना हजारे केंजरीवाल स्मृति ईरानी बी के सिंह कुमार विश्वास जैसे लोगों ने हवा लगाईं। गुजरात के सावरमती कांड से कांग्रेस को समझ जाना चाहिए था या अयोध्या के आडवाणी रथ यात्रा से मगर कांग्रेस समझी नहीं धर्म की राजनीति सुरु हो गई हैं। कांग्रेस के पास ऐसा वैचारिक कैडर सिस्टम नहीं रहा। उसकी राजनीति सरकार-केंद्रित रही, जबकि भाजपा की राजनीति समाज-केंद्रित होती चली गई। यही कारण है कि कांग्रेस भाजपा–आरएसएस के जाल से बाहर नहीं निकल पाई। इतिहास गवाह हैं कांग्रेस ने जिस भी पार्टी से गठबंधन किया वह कांग्रेस को ले डूब गया और बीजेपी ने जिस भी पार्टी का साथ दिया वह सदैव के लिए अस्त हो गया उन का नामोनिशान नहीं बचा।

मैं पूछता हूँ क्या धर्म आज का सबसे बड़ा कारण है? उत्तर है हाँ, लेकिन अधूरा। धर्म को एजेंडा बनने दिया गया क्योंकि कांग्रेस ने समय रहते भावनात्मक और वैचारिक राजनीति का संतुलन नहीं बनाया। उसने यह मान लिया कि तर्क, कानून और नीति ही पर्याप्त हैं। जबकि मानव सभ्यता रोज़ बदलाव चाहती है और उस बदलाव के लिए वह कुछ भी कर गुजरती है। इसी आकांक्षा से नए धर्म, पंथ, समुदाय, पार्टियाँ और संगठन जन्म लेते हैं। कांग्रेस ने 1984 दंगो के बाद भी अल्पसंख्यक को नहीं छोड़ा वैचारिक मतभेद नहीं रखे दंगो को उकसाने वाले जगदीश टाइटलर सजक सिंह अमिताभ बच्चन साहिब सिंह बर्मा पर कार्यवाही किया जब कि वो चाहते तो उन को बचा सकते थे।

कांग्रेस की त्रासदी यह है कि उसने लोकतंत्र को मजबूत किया, लेकिन अपनी राजनीति को कमजोर कर लिया। कांग्रेस ने संस्थानों का निर्माण किया उसने संस्थाएँ बचाईं, लेकिन खुद को नहीं बचा पाई। भाजपा/आरएसएस ने संस्थाओं से पहले नैरेटिव पर कब्जा किया। कानून अपने हक़ में किये नोटबंदी जैसे कानून से खुद की तिजोरी भरी और अपने उसी पैटर्न पर चली दुश्मन से पहले दोस्त को कमजोर करो ताकि वो आप के लिए भविष्य में चुनौती पैदा न करे इसी लिए बीजेपी का हर नेता आज निर्णय लेने में कमजोर हैं सारे निर्णय केंद्र के अधीन हैं कोई भी मुख्यमंत्री केंद्र से पूछे बिना काम नहीं करता। आज कांग्रेस की चुनौती केवल चुनाव जीतना नहीं है, बल्कि अपने राजनीतिक पैटर्न को जड़ से पुनर्परिभाषित करना है वरना इतिहास उसे एक ऐसी पार्टी के रूप में याद रखेगा जिसने देश को अधिकार दिए, लेकिन सत्ता का अर्थ समझने में चूक कर गई।

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