फ़ासीवाद की ओर….
बात वर्ष 1919 की हैं यह दौर प्रथम विश्वयुद्ध का था। जब समूचा यूरोप इस के लिए तानाबाना बुन रहा था। यूरोप व मध्य एशिया अंदर ही अंदर गृहयुद्ध के लिए तैयार हो रहा था। फ़ासीवाद या फ़ासिस्टवाद (फ़ासिज़्म) इटली में बेनितो मुसोलिनी द्वारा संगठित “फ़ासिओ डि कंबैटिमेंटो” का राजनीतिक आंदोलन था जो मार्च, 1919 में प्रारंभ हुआ। इसकी प्रेरणा और नाम सिसिली के 19वीं सदी के क्रांतिकारियों- “फासेज़”-से ग्रहण किए गए। इस दौर में इतिहास का सब से बड़ा नरसंहार हुआ जिस का सीधा असर दुनिया के हर प्राणी पर पड़ा। इसका उद्भव 1914 के पूर्व के समाजवादी आंदोलन (सिंडिकैलिज़्म) में ही हो चुका था , जो फ्रांसीसी विचारक जाज़ेंज सारेल के दर्शन से प्रभावित था। सिंडिकैलिस्ट पार्टी उस समय पूँजीवाद और संसदीय राज्य का विरोध कर रही थी।
सीधे शब्दों में फ़ासीवाद को समझना हैं तो फ़ासीवाद एक ऐसा कानून हैं जिस के अनुसार समूचे राष्ट्र का नियंत्रण एक व्यक्ति के हाथ में आजाता हैं उसी व्यक्ति को समूचे समाज का ख्वामख्वाह समझा जाता हैं उस व्यक्ति के खिलाप आवाज उठाने वाले को राष्ट्रद्रोही देशद्रोही गद्दा झूटा कहा जाता हैं। देश में धार्मिक उन्नमद होते हैं एक धर्म छोटा दूसरा धर्म बड़ा हो जाता हैं। धर्म खतरे में नजर आता हैं यह अफवाह सब जगह फैल जाती हैं कि अब आप सुरक्षित हाथों में हो पर हमारी शरण में आना पड़ेगा। देश का हर प्रभुत्व व्यक्ति उव व्यक्ति के नतमस्तक हो जाना चाहता हैं। प्रजा उस व्यक्ति के खिलाप आवाज नही उठा सकती उन के बनाई नीतियों को सभी को मानने ही मानने हैं। सामाजिक पत्रकारिता पर अंकुश लग जाता हैं। क़लम बिकने व टूटने सुरु हो जाते हैं लोकतंत्र रौंदा जाता हैं सूचनाएं उसी व्यक्ति के इर्दगिर्द घूमती हैं। फ़ासीवाद कानून अचानक नही जन्म लेता हैं इस के लिए कम से कम आज के दौर में 10 से 15 वर्ष का समय चाहिए। फ़ासीवाद जनता अपने लिए खुद चुन लेती हैं यह उसी देश में संचालित होता हैं जहां समाजवादी विचारधारा खत्म हो चुकी होती हैं जहां समाज का एक विशाल धड़ा स्वयं को किसी व्यक्ति का सेवक या पुजारी बना देता हैं। स्वयं का तर्पण करना किसी को स्वयं अर्पित करना फ़ासीवाद को जन्म देता हैं। विचारों का शून्य हो जाना। लोकतंत्र का विलय राजतंत्र में हो जाना फ़ासीवाद की निशानी हैं।
फ़ासीवाद में बुद्धजीवी समाज पत्यक्ष दो धड़ों में बंट जाता हैं तीसरा धड़ा आम जनता का होता हैं जिस के लिए नीतियां तो बनती हैं पर पूंजीपतियों को इस का सीधा फायदा होता हैं। जिस के लिए सदन लड़ रहा होता है वह जिवनभर चुनोतियाँ से लड़ता रहता हैं। तीसरा धड़ा अपने आप को ठगा महसूस करता हैं वह धड़ा समाजवाद के लिये लड़ रहा होता हैं परंतु उसे सुनने वाला समाज उसे समझने वाला समाज रोटी कपड़ा मकान के लिए जूझ रहा होता हैं।
यह फ़ासीवाद लोकतांत्रिक राष्ट्रों में हर 15 से 20 वर्ष में एक बार जरूर आता हैं। धर्म के नाम पर जातिवाद के नाम पर क्षेत्रवाद के नाम पर फ़ासीवाद मजबूत होता हैं। किंतु भारत देश में फ़ासीवाद का आखरी दौर 1985 में खत्म हुआ जो लगातार 12 वर्ष चला और फिर हल्का सा 1990 में आया। जिस ने अनेकों समुदायों को अपने चपेट में लिया। हालांकि तब का दौर समूचे समाज के लिए कठिनाइयों का था आम खास में बहुत अंतर नही था पूंजीपति इतने बाहुल्य मात्रा में नही थे। किंतु वर्ष 2014 के बाद देश में पूंजीवाद के लक्षण बड़ी तेजी से दिखे अमीर व्यक्ति अमीर होता गया ओर गरीब सड़कों से गायब हो गया। जिस में बड़ी तेजी से राजनीतिक पार्टियों में पैसा आया और धनकुबेरों ने राजनीतिक पार्टियों में शरण लिया। हर प्रभुत्वशाली व्यक्ति किसी न किसी पार्टी से जुड़ गया। सम्मान बिकने लगे शिक्षा चिकित्सा सहित हर मूलभूत सुविधाओं का बाजारीकरण हो गया। कर्म कम वाहवाही अधिक समाज एक व्यक्ति एक संस्थान के अधीन हो गया। दैनिक रूप से कानून बदले जा रहे हैं अनेकों संसोधन कर अपने हित में लोकतंत्र को बनाया जा रहा हैं। ब्यूरोक्रेट्स को या तो खरीदा जा रहा हैं या उस पर अंकुश लगाया जा रहा हैं।
“राजा बोला रात हैं, रानी बोली रात हैं,
मंत्री बोला रात हैं संत्री बोला रात हैं,
प्रजा भी बोली रात हैं, यह सुबह-सुबह की बात हैं..!!
इस तरह से फ़ासीवाद को कायम किया जा रहा हैं। किंतु इतिहास गवाह हैं दुनिया में फ़ासीवाद की अवधि 1 या 2 दशक से अधिक नही हैं। समाज को जो तस्बीह बताई जा रही हैं उस में सिर्फ चांद जैसी चमक हैं वास्तविक नही हैं। इस में वह तीसरा धड़ा पिस रहा हैं जिस को यह मालूम नही कि दिन रात किस लिए बने हैं उसे तो काम से फुरसत नही हैं। यह दौर दुनिया के सब से बड़े लोकतांत्रिक राष्ट्र में पूंजीवाद का जहां चंद लोगों का नियंत्रण समूचे राष्ट्र पर हैं। यहां नीतियां समाज को मध्यनजर रखते हुए पूंजीपतियों के माफिक बनाई जाती हैं। देश धार्मिक साम्प्रदायिक के बारूद पर बैठ चुका हैं नजाने कब कोई चिंगारी आएगी और बड़े धमाके के साथ हजारों जाने स्वाहाः।
आज विश्वयुद्ध जैसा जंग नही होगा। आज की जंग लाखों KM दूर बैठ कर हो सकरी हैं। जिस में करोना-19 एक प्रमाण हैं। यदि किसी को नेस्तनाबूद करना हैं तो मात्र एक महामारी पैदा करें और अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत करें। अब जंग हथियारों की नही हैं अब जंग पानी रोक कर या छोड़ कर भी किया जा सकता हैं। अब आप किसी देश की अर्थव्यवस्था प्रभावित करना चाहते हो तो कुछ दिन आलू प्याज गेहूं दवाई कलपुर्जे इत्यादि पर आयात निर्यात बंद करें इस को आर्थिक जंग कहते हैं जिस में आप दुश्मन को खत्म भी कर सकते हैं और आप का विश्वपटल पर कोई विरोध नही करेगा आप का कोई दुश्मन पैदा नही हो सकता हैं। कुछ इसी तरह की लड़ाइयों से आज जंग चल रही हैं।
हम फ़ासीवाद का आधा सफर तय कर चुके हैं सिर्फ हमें यह घोषणा सुन्नी हैं कि हम अब किसे पूजें किस को हम रहनुमा समझे। देश में उस व्यक्ति को मठों में पूजने की देरी हैं वरना अनैच्छिक रूप में जनता मान चुकी हैं। आधिकारिक घोषणा के बाद उस व्यक्ति के नाम के मंदिर भी बनने सुरु हो जाएंगे।
देवेश आदमी