बंणाग का रौद्र रूप
बण (जंगल) आग (अग्नि) इन दो गढ़वाली शब्दों के मेल से जो शब्द बनता हैं उस का रौद्र रूप इस वर्ष उत्तराखण्ड के पहाड़ों में देखने को मिला। जंगलों में लगने वाले आग से प्रतिवर्ष सिर्फ उत्तराखण्ड राज्य को 12 सौ करोड़ का नुकसान होता हैं जिस की भरपाई फिर कभी नही होती। कीमती लकड़ी दुर्लभ पशु पक्षी जड़ी-बूटी प्राकृतिक जलश्रोतों का नुक्सान किसी भी तरह से आंका नही जा सकता हैं कुछ दैवीय संपदा ऐसी हैं जिस का मौल कोई नही लगा सकता। किन्तु कुदरत सूत सहित वसूलता हैं। जंगलों में आग लगने के दो ही कारण हैं पहला कुदरती जिस की उम्मीदें मात्र पाँच प्रतिशत होती हैं। जब कि मनुष्यों द्वारा लगाए जा रहे आग से सब से अधिक नुकसान मानव सभ्यता को होता हैं। पृथ्वी का चक्र कुछ इस तरह से बना हुआ हैं कि सब से शक्तिशाली प्राणी सब से पहले कुदरत के कहर में फंसता हैं। जिस का कोई नही उस का कुदरत हैं।
जंगलों में बढ़ रही आग की घटना से भारत के नो हिमालयी राज्यों में जलसंकट के साथ-साथ आर्थिक संकट भी मंडरा रहा हैं। पहाड़ों से पलायन में जंगल आग का बहुत बड़ा योगदान रहा हैं। अनेकों गाँव में पेयजल की विकट समस्या आगई हैं जिस से मवेशियों के लिए चारा पत्ती नही उग रहा। बुग्याल सिमट रहे हैं या गुणवत्तापूर्ण घास नही उग रही हैं उत्तराखण्ड हिमांचळ नेपाल भूटान के 35% बिग्याल 2040 तक खत्म हो सकते हैं। पहाड़ों में खेती सिमट गई हैं जोत बंजर पड़ रहे हैं। कंटीली झंडिया उगनी सुरु हो गई हैं। मौसमी पक्षियों का झुंड अब बहुत अल्प समय के लिए प्रवास करने आता हैं। स्थानीय पक्षियों का निलायन कम अवधि का हो रहा हैं जिस से विज प्रकीर्णन विकरण का प्रतिशत घट रहा हैं। पहाड़ों में बुग्यालों का स्तर घट रहा हैं हिमालयी दर्रे फट रहे हैं लगातर भूस्खलन बाड़ आकाशीय बिजली जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा हैं। जंगलों में आग लगने से सरीसृप प्राणियों का स्थानांतरण होना बहुत बड़े नुक्सान की तरफ लेजा रहा हैं। जमीन में बिल बनाकर रहने वाले अनेकों प्राणी या तो ग्रीष्म कटिबंधीय क्षेत्र छोड चुके हैं या फ़िर उन की प्रजातियां उस क्षेत्र से लुप्त हो चुकी हैं। निस से सुअर बंदर जैसी प्रजातियों की जनसंख्या में अचानक वृद्धि देखी गई हैं। हिमालयी राज्यों में सुअर बंदरो के आतंक बताता हैं कि संतुलन बनाने वाले कुछ प्राणी अब लुप्त हो गया हैं। जंगलों में आग लगने से वन्यजीव शहरों की तरफ बढ़ रहे हैं जिस से उन का टकराव मानव सभ्यता से हो रहा हैं जिस कारण प्रतिदिन सिर्फ भारत में 2500 वन्यजीव बेवजह मर रहे हैं। जंगलों के बीच सड़क बनना इंसानी बस्ती का अतिक्रमण खनन करना जानवरों में असुरक्षा का भाव उत्तपन कर रहा हैं जिस से जंगली जानवर आक्रमणकारी बन गए हैं।
जंगलों में आग लगाए जाने पर ठोस कानून हैं किंतु अमल में नही लाया जाता। वनस्पति का दोहन करने वाली संस्था सरकार गैरसरकारी ऑफिसर ही अपनी नाकामी अपने निम्न कार्य छुपाने के लिए अक्सर अलग लगाते हैं जिस में उन का साथ नीतिनिर्माताओं का होता हैं। खनिज पादार्थों खनिज लवणों का आग में जल जाना जितना नुकसानदेह हैं उस से अधिक किसी निजी संस्थान को उस खनिज संपदा का दोहन करने देना हैं। क्यों कि दूध का धुला कौन हैं आज के युग में यह स्वयं राम भी नही बता सकते।
हिमालयी राज्य वन संपदा पर ही आश्रित हैं वनों से ही उन का दिनचर्या चलता है इस लिए वे लोग जंगलों को नुकसान नही पहुचाते यदि पेड़ काटने की नोबत आती हैं तो वे पेड़ भी लगाते हैं जंगलों में लगी आग को बुझाने ग्रामीण स्वयं जाते थे। किंतु वनाधिकार छिन जाने से ग्रामीणों का जंगलों से मोह भंग हो गया हैं। ग्रामीणों के लिए सख्त वनकानून बन गए हैं जिस से लगातार जंगलों।में आग लगने की घटनाएं घट रही हैं। कुछ लोगों में जागरूकता की भी कमी हैं जिसे सरकार NGO व स्वयंसेवी ही दूर कर सकते हैं लोगों को वनाधिकार देने चाहिए जिस का नियंत्रण सरपंच के हाथों में हो। जिस के प्रधान सेवक ग्रामीण हो। जिस के लिए पतरौल (चौकीदार) दैनिक वेतन पर रखा जाय। आज हमें वनसंरक्षण की जरूरत क्यों आन पड़ी इस विषय पर गहन चिंतन की आवश्यकता हैं हमें मंथन करना चाहिए।कि 20 से पच्चीस वर्ष पूर्व तक जो जंगल पहाड़ों शहरों को पानी देते थे अचानक आधुनिकता की भेंट क्यों चड़े क्यों वनों का दोहन दूरगामी परिणाम से नही किया गया। क्यों इतनी बड़ी वन विभाग की फ़ौज नाकाम हो रही हैं। आधुनिक उपकरणों से लैस वनकर्मी आग लगने पर इंद्रदेव के भरोसे बैठे रहते हैं यह सिर्फ इच्छाशक्ति की बात हैं।
गाँव की मौलिकता जंगलों से हैं गाँव का असली प्रमाण वहां की जलवायु हैं गाँव छंछोड़ नवला पंदेरों के बिना अधूरा हैं जिस तरह सिर्फ भौगोलिक सीमाओं से कोई देश नही बनता उसी तरह सिर्फ पहाड़ों में रहने से सिर्फ जिम्मेदारी पूरी नही होती। हरी वादियों पक्षियों जानवरों के बिना आप पहाड़ की कल्पना नही कर सकते हो। पहाड़ की कल्पना के लिए आप को पहाड़ जैसा विशाल हृदय का होना पड़ेगा पहाड़ जैसे निर्णय लेने होंगे पहाड़ जैसा मजबूत होना पड़ेगा। पहाड़ की संस्कृति पहाड़ के सौंदर्यीकरण से हैं। सूखे पहाड़ सूखे जलस्रोत जले जंगल किसी को आकर्षित नही करती हैं। अनेकों पर्यावरण कार्यक्रम करें हजारों दिवस मनाएं उस का सार यही हैं कि पहले आग से जंगल बचाये पेड़ लगाने को आवश्यकता कभी नही पड़ेगी। कुदरत बहुत शक्तिशाली हैं उस ने अपने मुताबित चलना हैं कुदरत जानती हैं किस बीज को कब उगाना हैं उस के लिए मिट्टी पानी जलवायु कैसे चाहिए यह कुदरत की अपनी जिम्मेदारी हैं। हम सिर्फ अपनी जिम्मेदारी निभाएं। अपने लाभ के लिए हम पौधे लगा सकते हैं आर्थिक बागवानी के तरह हम पौधे लगाए किंतु जरूरत हैं पौधे बचाने की। आग से रोकथाम करने की। मजबूत इच्छाशक्ति की कि यदि कहीं आग लगे तो मैं पहले आग बुझाऊंगा सिर्फ सोशलमीडिया में फ़ोटो डालने के लिए पौधे न लगाएं और समाचारों के मुख्य खबर बनने के लिए आग न बुझाये। आज जंगलो को पहली बार आप की जरूरत हैं आग की नही। आग अपने दिलों में रखो जिसे तरक्की के लिए उपयोग करें जंगलों के लिए आग नुकसानदेह हैं।
देवेश आदमी