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प्रेमचंद को पढ रहे हो और आपकी आँख गीली न हुई हो!

प्रेमचन्द का लगभग पूरा साहित्य गाँव और किसान के जीवन श्रम पर केन्द्रित है।उनकी रचनाओं में किसान और मध्यम वर्ग के उत्पीड़न का जो मार्मिक रेखांकन हुआ है वैसा वर्तमान में कहीं भी रचनाओं में देखने को नहीं मिलता। आज प्रेमचंद जयंती है उन्हें याद करते हुए एक किसान परिवार से होने के नाते किसानों की याद बेतहाशा आ रही है। जहां वर्तमान समय में मध्यमवर्गीय समाज के इर्द गिर्द व्यापक लेखन हो रहा है वहीं किसान हाशिए पर है ऐसा क्यों हुआ है? शोचनीय विषय है। शायद द्वितीय पंचवर्षीय योजना के बाद से किसान की माली हालत का सुधरना प्रमुख कारण हो सकता है। बेशक जवाहरलाल नेहरू की कृषि क्रांति ने न केवल देश को अन्न के मामले में आत्मनिर्भर किया बल्कि विदेशों को खाद्यान्न निर्यात भी किया। लेकिन मझौले किसान और कृषि कार्य में लगे खेतिहर किसान आज भी प्रेमचंद के किरदारों की तरह बर्बादी की कगार पर हैं। यदि आज प्रेमचंद होते तो बहुत ग़मगीन और उदासीन होते?

ऐसा कभी नहीं हुआ की प्रेमचंद को पढ़ते हुए आँख गीली न हुई हो। मेरी ही नहीं शायद उन सब की जिनको साहित्य की समझ हो ना हो पर ग़रीब और ग़रीब की पीड़ा की समझ हो। वे तात्कालिन (1907-1936) समाज की लगभग हर विद्रुपता पर लिखते हैं, पर स्वाभिमानी ग़रीब का जो जीवंत वर्णन करते हैं वो अन्य किसी भी साहित्यकार की रचना में नहीं मिलता। हिन्दी गद्य साहित्य के अमर पुरोधा मुंशी प्रेमचंद जी का जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी के निकट लमही गाँव में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी था तथा पिता मुंशी अजायबराय लमही में डाकमुंशी थे। माता, जो उनसे बहुत स्नेह करती थीं तथा उनके और गरीबी के बीच मजबूत दीवाल की तरह थीं, उन्हें 7 वर्ष की अवस्था में ही छोड़ कर चली गयीं। बालक प्रेमचंद को माँ के विछोह से कितना गहरा दुःख हुआ ये उनकी रचनाओं में स्पष्ट देखा जा सकता। उनके अनेक पात्र मातृविहीन होते थे। चौदह वर्ष की उम्र तक पिता अजायबराय ने साथ दिया पर उसके बाद वो भी भगवान् को प्यारे हो गए। अध्ययन-अध्यापन के शौक़ीन धनपत राय (प्रारंभिक नाम ) ने कम उम्र में ही उर्दू-फ़ारसी के उपन्यासों से परिचय प्राप्त कर लिया और धनपत राय के नाम से लिखने लगे। उनकी प्रारंभिक रचनाओं में से एक ‘सोजे-वतन’ के लिए उन्हें सरकारी तौर पर हिदायत दी गयी और उसकी प्रतियाँ जला दी गयीं। उर्दू में प्रकाशित होने वाली ज़माना पत्रिका के सम्पादक और उनके अजीज दोस्‍त मुंशी दयानारायण निगम ने उन्हें प्रेमचंद नाम से लिखने की सलाह दी।

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प्रेमचंद हिन्दी गद्य इतिहास के शिखर पुरुष हैं। उन्होंने हिन्दी उपन्यासों और कहानियों की ‘कर्मभूमि’ ही नहीं बदली, उनका ‘कायाकल्प’ भी कर दिया। 1907 में उनकी पहली कहानी का प्रकाशन जमुना पत्रिका में किया गया, कहानी थी -‘संसार का सबसे अनमोल रत्न’ ! प्रेमचंद का हिन्दी साहित्य में आगमन गद्य को नयी दिशा के साथ साथ प्रौढ़ता भी प्रदान करता है। उपन्यास के क्षेत्र में उनके योगदान को देखकर बंगाल के विख्यात उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने उन्हें उपन्यास सम्राट कहकर संबोधित किया था। उन्होंने कहानी और उपन्यास दोनों विधाओं में सशक्त तथा गंभीर लेखन किया है। यथार्थवाद के जनक प्रेमचंद जी की साहित्यिक यात्रा को दो कालखंडों में बाँटा जाता है। पहला 1907-1925 जिसे ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ कहा जाता है, तथा दूसरा 1925- 1936 ‘नग्न-यथार्थवाद’ !

पहले के दौर की रचनाओं में यथार्थवाद तो है, पर कहानियों की परिणति आदर्शवादी मोड़ पर होती है। इस दौर की कहानियों पर भारतीय परम्पराओं तथा मान्यताओं के साथ-साथ गांधीवादी दर्शन का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है। हृदय-परिवर्तन की घटना बहुतायत मात्रा में होती है। इस दौर की कहानियों में – पंच-परमेश्वर , बूढी-काकी, बड़े घर की बेटी, मन्त्र, मुक्तिपथ आदि प्रमुख हैं।

दूसरे दौर तक आते-आते प्रेमचंद जी का आदर्शवादी मोह पूर्णतः बिखर जाता है। उनके पात्र कफन के पैसे से शराब और खाना की व्यवस्था करने लगते हैं। ‘कफ़न’ चरम यथार्थवादी कहानी है। और कहानियों में- ‘पुष की रात ‘, ‘सद्गति , अलग्योझा, शतरंज के खिलाडी, आदि प्रमुख हैं।

उपन्यास के क्षेत्र में क्रन्तिकारी परिवर्तन लाने वाले मुंशी जी ने हिन्दी उपन्यास को शैशवावस्था से सीधे प्रौढ़ावस्था में पहुंचा दिया। आधुनिक युग की विचारधारा यथा ‘दलित चेतना’ तथा ‘नारी चिंतन’ के बीज प्रेमचंद जी के उपन्यासों में निहित मिलते हैं। यशपाल और नागार्जुन जैसे सफल लेखकों ने इनका अनुसरण किया। अधूरे मंगलसूत्र की रचना से पूर्व इन्होने कई कालजयी उपन्यासों की रचना की- गोदान, गबन, प्रेमाश्रम आदि उनकी समर्थ लेखनी के परिचायक उपन्यास हैं। गोदान हिन्दी साहित्य का प्रथम महाकाव्यात्मक उपन्यास है। रंगभूमि में प्रेमचंद एक अंधे भिखारी सूरदास को कथा का नायक बनाकर हिंदी कथा साहित्‍य में क्रांतिकारी बदलाव का सूत्रपात कर चुके थे। गोदान का हिंदी साहित्‍य ही नहीं, विश्‍व साहित्‍य में महत्‍वपूर्ण स्‍थान है। इसमें प्रेमचंद की साहित्‍य संबंधी विचारधारा ‘आदर्शोन्‍मुख यथार्थवाद’ से ‘आलोचनात्‍मक यथार्थवाद’ तक की पूर्णता प्राप्‍त करती है। एक सामान्‍य किसान को पूरे उपन्‍यास का नायक बनाना भारतीय उपन्‍यास परंपरा की दिशा बदल देने जैसा था। सामंतवाद और पूंजीवाद के चक्र में फंसकर हुई कथानायक होरी की मृत्‍यु पाठकों के जहन को झकझोर कर रख जाती है। लम्बी बीमारी के बाद ८ अक्टूबर १९३६ को उनका निधन हो गया। उनका अंतिम उपन्यास मंगल सूत्र उनके पुत्र अमृत ने पूरा किया। प्रस्तुत है होरी की मृत्यु का अंश (गोदान से ):-

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“धनिया ने होरी की देह छुई तो कलेजा सन से हो गया। मुख कांतिहीन हो गया था।
कांपती हुई आवाज़ से बोली – कैसा जी है तुम्हारा?
होरी ने अस्थिर आँखों से देखा और बोला — तुम आ गये गोबर? मैंने मंगल के लिये गाय ले ली है। वह खड़ा है, देखो।
धनिया ने मौत की सूरत देखी थी। उसे पहचानती थी। उसे दबे पाँव आते भी देखा था, आँधी की तरह भी देखा था। उसके सामने सास मरी, ससुर मरा, अपने दो बालक मरे, गाँव के पचासों आदमी मरे। प्राण में एक धक्का-सा लगा। वह आधार जिस पर जीवन टिका हुआ था, जैसे खिसका जा रहा था; लेकिन नहीं यह धैर्य का समय है, उसकी शंका निर्मूल है, लू लग गयी है, उसी से अचेत हो गये हैं।
उमड़ते हुए आँसुओं को रोककर बोली — मेरी ओर देखो, मैं हूँ, धनिया; मुझे नहीं पहचानते?
होरी की चेतना लौती। मृत्यु समीप आ गयी थी; आग दहकनेवाली थी। धुँआँ शान्त हो गया था। धनिया को दीन आँखों से देखा, दोनों कोनों से आँसू की दो बूंदें ढुलक पडीं। क्षीण स्वर में बोला — मेरा कहा सुना माफ़ करना धनियाँ! अब जाता हूँ। गाय की लालसा मन में ही रह गयी। अब तो यहाँ के रुपए किरया-करम में जायँगे। रो मत धिनया, अब कब तक जिलायेगी? सब दुर्दशा तो हो गयी। अब मरने दे।
और उसकी आँखें फिर बंद हो गयीं। उसी वक्त हीरा और शोभा डोली लेकर पहुँच गये। होरी को उठाकर डोली में लिटाया और गाँव की ओर चले। गाँव में यह ख़बर हवा की तरह फैल गयी। सारा गाँव जमा हो गया। होरी खाट पर पड़ा शायद सब कुछ देखता था, सब कुछ समझता था; पर ज़बान बंद हो गयी थी। हाँ, उसकी आँखों से बहते हुए आँसू बतला रहे थे कि मोह का बंधन तोड़ना कितना कठिन हो रहा है। जो कुछ अपने से नहीं बन पड़ा, उसी के दु:ख का नाम तो मोह है। पाले हुए कर्तव्य और निपटाये हुए कामों का क्या मोह! मोह तो उन अनाथों को छोड़ जाने में है, जिनके साथ हम अपना कर्तव्य न निभा सके; उन अधूरे मंसूबों में है, जिन्हें हम न पूरा कर सके।

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मगर सब कुछ समझकर भी धनिया आशा की मिटती हुई छाया को पकड़े हुए थी। आँखों से आँसू गिर रहे थे, मगर यंत्र की भाँति दौड़-दौड़कर कभी आम भून कर पना बनाती, कभी होरी की देह में गेहूँ की भूसी की मालिश करती। क्या करे, पैसे नहीं हैं, नहीं किसी को भेजकर डाक्टर बुलाती।

हीरा ने रोते हुए कहा — भाभी, दिल कड़ा करो, गो-दान करा दो, दादा चले।

धनिया ने उसकी ओर तिरस्कार की आँखों से देखा। अब वह दिल को और कितना कठोर करे? अपने पति के प्रति उसका जो धर्म है, क्या वह उसको बताना पड़ेगा? जो जीवन का संगी था उसके नाम को रोना ही क्या उसका धर्म है?
और कई आवाजें आयीं — हाँ गो-दान करा दो, अब यही समय है।
धनिया यंत्र की भांति उठी, आज जो सुतली बेची थी उसके बीस आने पैसे लायी और पति के ठंडे हाथ में रखकर सामने खड़े दातादीन से बोली — महराज, घर में न गाय है, न बिछया, न पैसा। यही पैसे हैं, यही इनका गो-दान है। और पछाड़ खाकर गिर पडी।”

आज बदलते हुए समय के साथ कैसे किसान भूमिहीन होता जा रहा है, इस बात को समझने के लिए प्रेमचंद की कहानियों से अच्छा माध्यम शायद ही कुछ और हो सकता है। उन्होंने बताया कि कैसे लोग किसान से मजदूर बनते जा रहे हैं और कैसे लोगों में काम करने की चाहत समाप्त होती जा रही है। आदिवासियों की तरह आज किसान भूमिहीन हो रहा है। आदिवासियों और किसानों की ज़मीन पर कारपोरेट जगत की नज़र है। आज तो संपूर्ण कृषि को अधिग्रहण करने का उपक्रम जारी है।जिससे तमाम खाद्यान्न उपभोक्ता संकट में आ जाएंगे पर किसान अकेले संघर्ष कर रहे हैं। प्रेमचंद ने अपनी कहानियों में किसान की जिस पीड़ा को महाजनी सभ्यता में उठाया था आज वह बदले तथा निकृष्टतम स्वरुप में सामने है। एक किसान के नाते जो बेहद कष्टदायी है।

राजकुमार सिंह